उत्तरपर्व ]
* वैष्णव एवं शौव नक्षत्रपुरुष-ब्रतोंका विधान «
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साप्मरायणी बोली--'देवगुरों जितने इन्द्र हो चुके
हैं, सबका वृत्तान्त मैं अच्छी तरह जानती हूँ। मैंने बहुत-से
मनुओं, देवसुष्टियो और सप्तर्षियोंकों देखा है। मनुपुत्रोंको भी
जानती हूँ और सब मन्वत्तरोंका चरित्र मुझे ज्ञात है। जो आप
पूछें, वही मैं बताऊँगी। साम्भरायणीका यह वचन सुनकर
देवराज इन्द्र ओर देवगुरु बृहस्पतिने स्वायम्भुव, स्वारोचिष,
उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष आदि मनुओं, मन्वन्तसो और
व्यतीत इन्द्रोंका वृत्तान्त उससे पूछा। साम्थरायणीने सम्पूर्ण
कुत्तान्तोका यथावत् वर्णन किया। राजन् ! उसने एक अत्यन्त
आशक्षर्यकी बात यह बतलायी कि पूर्वकालमें शंकुकर्ण नामका
एक बड़ा प्रतापो दैत्य हुआ । वह लोकपालॉंको जीतकर स्वर्गमें
इन्द्रको जीतने आया और निर्भय हो इन्द्रके भवनमें प्रविष्ट हो
गया। झैकुकर्णको देखकर इन्द्र भयभीत होकर छिप गये और
यह इन्द्रके आसनपर बैठ गया । उसी समय देवताओंके साथ
विष्णु भी वहाँ आये। भगवानको देखकर दाकुकर्ण अत्यन्त
प्रसन्न हो गया और उसने बड़े स्नेहसे भगवानका आलिङ्गन
किया। भगवान् उसकी नियतको समझ रहे ये, अतः उन्होंने
भी उसका आलिङ्गन कर ऐसा निष्पीडन किया कि उसके सब
अस्थिपंजर चूर-चूर हो गये और वह घोर शब्द् करता हुआ
मृत्युक प्राप्त हो गया। दैत्यको मय जानकर इन्द्र भी उपस्थित
हो गये और विष्णुभगवानकी स्तुति करने लगे ।
साम्भरायणीने पुनः कहा--देवराज ! यह वृत्तान्त मैंने
अपने नेत्रोसे देखा था।
इन्द्रने साम्भरायणीसे पूछा--देवि ! इतने प्राचीन
बुलान्तको आप कैसे जानती हैं ?
साम्भरायणीने कहा--देवेनद्र ! स्वर्गका कोई ऐसा
यूत्तान्त नहीं है, जो मैं न जानती होऊँ।
इन्दरने पूछा--धघर्मज्ञे! आपने ऐसा कौन-सा सत्कर्म
किया है, जिसके प्रभावसे आपको अक्षय स्वर्ग प्राप्त हुआ ?
साम्भरायणी बोली -मैने प्रतिमास मास-नक्षक्रॉमें
सात वर्षपर्यन्त भगवान् अच्युतका विधिवत् पूजन और
उपवास किया है । यह सब उसी पुष्य-कर्मका फल है । जो
पुरुष अक्षय खर्गवास, इन्द्रपद, पर्य, संतति आदिकी इच्छा
करें, उसे अवश्य ही भगवान् विष्णुकी आराधना करनी
चाहिये। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष--ये चारों पदार्थ
भगवान् विष्णुकी उरराधनासे ग्राप्त होते हैं। इतना सुनकर
देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र साम्मययणीपर बहुत प्रसन्न
हुए और दोनों भक्तिपूर्वक उसके द्वारा बताये गये मास-नक्षत्र-
ब्रतका पालन करने लगे।
(अध्याय १०७)
अन्द
वैष्णव एवं जैव नक्षत्रपुरुष-व्रतोंका विधान
राजा युधिष्ठिरे पृषछठा--यदुसत्तम ! पुरुष और
स्ियोको उत्तम रूप किस कर्मके करनेसे प्राप्त होता है आप
सर्वङ्गिसुन्दर श्रेष्ठ रूपकी प्रातिका उपाय बताइये ।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा--महाराज ! यही चात
अरुन्धतीने वसिष्ठजीसे पूछी थी और महर्षि वसिष्ठने उनसे कहा
था-- 'प्रिये ! विष्णु भगवान्की बिना आराधना और पूजन
किये उत्तम रूप प्राप्त नहीं हो सकता। जो पुरुष अथवा खी
उत्तम रूप, ऐश्वर्य और संतानकी अभिलाषा करे, उसे
नक्त्रपुरुषरूप भगवान् किष्णुका पूजन करना चाहिये।' इसपर
अरुन्धतीने नक्षत्रपुरुषत्रतका विधान पूछा। वसिष्ठजीने
कहा-- प्रिये ! चैत्र माससे छेकर भगवानके पाद आदि
अज्लॉका उपवासपूर्वक पूजन करे । स्ानादिसे पवित्र होकर
नक्षत्रपुरुषरूपी भगवान् विष्णुकी प्रतिमा बनाकर उनके पादसे
सं भः पु अ १३--
सिरतकके अङ्गका इस विधिसे पूजन करे । मूल नक्षत्रमें दोनो
पैर, रोहिणी नक्षत्रमें दोनों जंघा, अधिनीमे दोनों घुटनों,
आषाढ़में दोनों ऊरुओं, दोनो फाल्गुनीमें गुह्मास्थान, कृत्तिकामें
कटिय्रदेश, दोनों भाद्रपदा ओमि पार्धभाग और टखना, रेवतीमे
दोनों कुक्षि, अनुराधामें वक्षःस्थल, धनिष्ठामें पीठ, विशास््रामें
दोनों भुजाएँ, हस्तमें दोनों हाथ, पुनर्वसु अगु, आइलेषामें
नख, ज्येष्ठामें प्रीवा, श्रवणमें कर्ण, पुष्यमें मुख, स्वातीमे दाँत,
शातभिषामें मुल, मध्वामे नासिका, मृगशिरामें नेत्र, चित्रामें
क्ट, भरणीमें सिर और आर्द्धमें केशॉंका पूजन करे ।
उपवासके दिन तैलाभ्यङ्गं न करे । नक्षत्रके देवताओं और
नक्षत्रराज चनद्रमाका भी प्रति नक्षत्रम पूजन करे और विदान्
ब्राह्मणको भोजन कराये । यदि चते अदौौच आदि हो जाय
तो दूसरे नक्षत्रमें उपवास कर पूजन करे । इस प्रकार माघ