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उत्तरपर्य ]

» वुन्ताक-त्याग एवं प्रह-नक्षत्रव़्तकी विधि *

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आप दया करें। किसी भी प्रकारसे मेरे द्वारा किये गये व्रत,

तप इत्यादि कर्मोमें जो कोई भी त्रुटि, अपराध एवं च्युति हो

गयी हो, हे देवदेवेश ! आपके अनुग्रहसे वह सब दोष दूर हो

जायैं और मेरा त्रत पूर्ण हो जाय। आपको नमस्कार है।'

तदनन्तर दिक्पास्प्रेंको अर्ध्यं प्रदान कर मुख्य देवताकी

अङ्ग-पूजा करे और अन्तमे फिर प्रार्थना करे । ब्राह्मणका पूजन

करे और ब्राह्मण भी ब्रतकी पूर्णताके ल््यि इस प्रकार

आशीर्वाद प्रदान करें--

यजमान भी ब्राह्मणको बिदा कर सब सामग्री उसके घर

भेज दे। पीछे पञ्चयज्ञकर भोजन करे । इस सम्पूर्ण ब्रतको जो

एक बार भी भक्तिसे करता है, वह खण्डित-ब्रतका सम्पूर्ण

फल प्राप्त कर लेता है और ब्रतभ्रके पापसे मुक्त हो जाता है।

इस त्रतको जो करता है, वह घन, रूप, आरोम्य, कीर्ति आदि

प्राप्त कर सौ वर्वपर्यत्त भूमिपर सुख भोगकर स्वर्ग प्राप्त करता

है और अन्मे मोक्षकों प्राप्त होता है। महाराज ! प्रायश्षित्तरूप

इस सम्पूर्ण त्तकोो प्रसन्न हो महर्षि गर्गजीने मुझे बताया था

और बाल्यावस्थामें मैंने भी इसे किया था। इसलिये राजन्‌ !

आप भी इस व्रतको करें, जिससे जन्मान्तरोंमें भी किये खण्डित

व्रत पूर्ण हो जाये ।

राजन्‌ ! इसी प्रकार एक अन्य पण्यस्त्री-त्रत है, जो

रविवारको हस्त, पुष्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र आनेपर प्रारम्भ

किया जाता है तथा उसमें विधिपूर्वक विष्णुस्वरूप कामदेवका

पूजन किया जाता है, अन्ते सभी उपकरणोंसे युक्त श्या

तथा किष्णुप्रतिमा ब्राह्मणको दान कर दी जाती है। व्रती ख्नौको

चाहिये कि वह सदाचारके नियमोंका पालन करती रहे। इस

पराझरधौम्याज्विस्सवसिष्ठनास्दादिमुनिबचनात्‌ सम्पूर्ण भवतु कतके करनेसे पण्यस्यो -जैसी अधम स्तियोंका भी उद्धार हो

ते त्रतप्‌ ॥ (उत्तरपर्व ११० । २३--२७) जाता है। (अध्याय ११०-१११)

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बृन्ताक-त्याग एवं ग्रह-नक्षत्रत्रतकी विधि

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! अब मैं वृत्ताक

(बैगन) के त्यागकी विधि यता रहा हूँ। ब्रतीको चाहिये कि

एक वर्ष, छः मास अथवा तीन मास वृत्ताकका त्याग कर

उद्यापन करें। उसके बाद संकल्पपूर्वक भरणी अथवा मघा

नक्षत्रमें उपवासकर एक स्थण्डिल बनाकर उसपर अक्षत-

पुष्पोंसे यमराजका तथा उनके परिकरोंका आवाहनकर गन्ध,

पुष्प, नैयेद्य आदि उपचारोंसे यम, काल, नील, चित्रगुप्त,

वैवस्वत, मृत्यु तथा परमेष्ठी--इन पृथक्‌-पृथक्‌ नामोंसे

विधिपूर्वक पूजन करे । तदनन्तर अम्रिस्थापन कर तिल और

घीसे इत्हीं नाम-मन्त्रोंके द्वारा हवन करें। तदनन्तर स्विष्टकृत्‌

एवं प्रायक्षित होम करे । आभूषण, वस्र, छता, जूता, काला

कम्बल, काला बैल, काली गाय और दक्षिणाके साथ सोनेका

बना हुआ वृन्ताक ब्राह्मणको दान कर दे और अपनी शक्तिके

अनुसार ब्राह्मण-भोजन कराये । ऐसा करनेसे पौष्डरीक-यज्ञका

फल प्राप्त होता है। साथ ही ब्रतीकों सात जन्मतक यमका

दर्शन नहीं करना पड़ता और वह दीर्घ समयतक स्वर्गमें

समादुत होकर निवास करता है।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने पुन: कहा--महाराज ! अब मैं

अह-नक्षत्र-व्रतकी विधि बतलाता हूँ, जिसके करनेसे सभी क्रूर

ग्रह शान्त हो जाते हैं और लक्ष्मी, धृति, तुष्टि तथा पुष्टिकी

प्रति होती है। जिस रविवास्को हस्त नक्षत्र हो उस दिन

भगवान्‌ सूर्यका पूजन कर नक्तब्रत करना चाहिये। इस

नक्तत्रतकों सात रविवारतक भक्तिपूर्वक करके अन्तम भगवान्‌

सूर्यकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर ताम्रपत्रमें स्थापित करे । फिर

उसे घीसे साने कराकर रक्त चन्दन, रक्त पुष्प, रक्त वस, धूप,

दीप आदिसे पूजनकर लड्डका भोग रगाये । जूता, छता, दो

तप्रल वख ओर दक्षिणाके साथ वह प्रतिमा ब्राह्मणको दे इस

व्रतको करनेसे आयोग्य, सम्पत्ति ओर संतानकी प्राप्ति होती है ।

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