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क पुराणै परम पुष्य भविष्यं सर्वसौख्यदम् [१
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
[०
रोहिणी नक्षत्रमें मेरा जन्म हुआ! । वसुदेवजीके द्वार माता
देवकीके गर्भसे मैंने जन्म लिया । यह दिन संसारमे जन्माष्टमी
नामसे विख्यात होगा । प्रथम यह व्रत मधुरामें प्रसिद्ध हुआ
और बादमें सभी लोकॉमें इसकी प्रसिद्धि द्ये गयी । इस व्रतके
करनेसे संसारम शान्ति होगी, सुख प्राप्त होगा और प्राणिवर्ग
गेगरहित होगा।'
महाराज युधिष्ठिरने कहा--भगवन् ! अब आप इस
ब्रतका विधान बतत््ये, जिसके करनेसे आप प्रसन्न होते है ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! इस एक ही
ब्रतके कर लेनेसे सात जन्मके पाप नष्ट हो जाते हैं। व्रतके
पहले दिन दन्तधावन आदि करके ब्रतका नियम ग्रहण करे ।
ब्रतके दिन मध्याह्ममें स्नानकर माता भगवती देवकीका एक
सूतिका-गृह बनाये । उसे पद्यरागमणि और वनमासा` आदिसे
सुशोभित करे। गोकुलकी भाँति गोष, गोपी, घण्टा, मृदङ्ग,
शङ्खं और माङ्गल्य-कलश आदिसे समवित तथा अलैकृत
सूतिका-गृहके द्वारपर रक्षके लिये खङ्ग, कृष्ण छाग, मुराल
आदि रखे । दीवालोपर स्वस्तिक आदि माङ्गलिक चिह्न बना
दे। षष्ठीदेवीकी भी नैवेद्य आदिके साथ स्थापना करे । इस
प्रकार यथाशक्ति उस ॒सूतिकागृहको विभूषितकर बीच
पर्यङ्कके ऊपर मुझसहित अर्धमुप्तावस्थावाली, तपस्विनी माता
देवकीकी प्रतिमा स्थापित करे । प्रतिमा आठ प्रकारकी होती
हैं--स्वर्ण, चाँदी, ताम्र, पीतल, मृत्तिका, काष्ठकी, मणिमयी
तथा चित्रमयी । इनमेंसे किसी भी वस्तुकी सर्वलक्षणसम्पन्न
प्रतिमा बनाकर स्थापित करे । माता देवकीका स्तनपान करती
हुई बालस्वरूप मेरी प्रतिमा उनके समीप पलैंगके ऊपर
स्थापित करें। एक कन्याके साथ माता यशोदाकी प्रतिमा भी
वहाँ स्थापित की जाय । सूतिका-मण्डपके ऊपरकी भित्तियॉमें
देवता, ग्रह, नाग तथा विद्याधर आदिकी मूर्तियां हाथोंसे
पुष्प-वर्षा करते हुए बनाये । वसुदेवजीको भी सूतिकागृहके
बाहर खङ्ग और ढाल धारण किये चित्रित करना चाहिये।
वसुदेवजी महर्षि कश्यपके अवतार हैं और देवकी माता
अदितिकी । बलदेवजी शेषनागके अवतार हैं, नन्दबावा
दक्षप्रजापतिके, यशोदा दितिकी और गर्गमुनि ब्रह्माजीके
अवततार हैं। कैस कालनेमिका अवतार है । कैसके पहरेदारोंको
सृतिकागृहके आस-पास निद्रावस्थामें चित्रित करना चाहिये ।
गौ, हाथी आदि तथा नायती-गाती हुई अप्सरओं और
गन्धवती प्रतिमा भी बनाये। एक ओर कालिय नागकों
यमुनाके हृदमें स्थापित करे ।
इस प्रकार अत्यन्त रमणीय नवसूतिका-गृहमें देवी
देवकीका स्थापनकर भक्तिसे गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप,
नारियल, दाडिम, ककड़ी, बीजपूर, सुपारी, नारंगी तथा पनस
आदि जो फल उस देशमें उस समय प्राप्त हों, उन सबसे
पूजनकर माता देवकीकी इस प्रकार प्रार्थना करे--
गायद्धिः किन्नराद्चैः सततपरिवृता वेणुवीणानिनादै-
भंज्ञारादर्शकुम्भप्रमरकृतकरै: सेव्यमाना मुनीन ।
पर्यङ्के स्वास्तृते चा मुदिततरमनाः पुत्रिणी सम्यगास्ते
सा देवी देवमाता जयति सुवदना देवकी कानरूपा ॥
(उत्तरपर्थ ५५। ४२)
“जिनके चारों ओर किनर आदि अपने हाथमे वेणु तथा
वीणा-वा्योकि द्वारा स्तुति-गान कर रहे हैं और जो
अधभिषेक-पात्र, आदर्श, मङ्गलमय कलश तथा चैंवर हाथोंमें
लिये श्रेष्ठ मुनिगणोंद्राश सेवित हैं तथा जो कृष्ण-जननी
भलीभाँति बिछे हुए पलैंगपर विराजमान हैं, उन कमनीय
स्वरूपवाली सुबदना देवमाता अदिति-स्वरूपा टेवी देवकीकी
जय हो ।'
उस समय यह ध्यान करे कि कमलासना लक्ष्पी देवकोके
चरण दबा रही हों । उन देवी लक्ष्मीकी--“रमो देव्यै महादेव्यै
शिवायै सततं नमः ।' इस मन््रसे पूजा करे इसके बाद "ॐ
देवक्यै नमः, ॐ वसुदेवाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ
श्रीकृष्णाय नमः, ॐ सुभद्रायै नमः, ॐ नन्दाय नमः तथा
३» यशोदायै नमः'--हुन नाम-मन्वरोसे सबका अलग-अलग
प ग
१-चिहयशिगते सदै गगने गलदाकुले । मासि = भाद्रपदेऽटम्यौ कृष्णपक्षऽर्भयपके ।
चुषराशिस्थिते चन्दर नक्षत्र. रोहिजीयुते ॥
(उत्तरपर्व ५५॥ १४)
२-आजानुलम्धिनी ऋतु-पुष्पोंकी माला और फ्थराग, मुक्ता आदि पञ्चनणियोकी माला तथा तुलसीपत्रमिश्रित विविध पुष्पोकी मालको भी
वनमाला, जयमला और वैजयन्ती माला कहा गया है।