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३६ ऋग्वेद संहिता भाग-९

२२४८. ऋतज्येन क्षिप्रेण ब्रह्मणस्पतिर्यत्र वष्टि प्र तदश्नोति धन्वना ।

तस्य साध्वीरिषवो याभिरस्यति नृचक्षसो दृशये कर्णयोनयः ॥८ ॥

(7 थे पक शी

(ज्ञानरूपी) ज तक) वे चाहते हैं, पहुँचा ॥ सर

संकटों और दुष्ट भावों को उखाड़ फेंकते हैं ॥८ ॥ 3 पुन

२२४९. स संनयः स विनयः पुरोहितः स सुष्टुतः स युधि ब्रह्मणस्यतिः।

चाक्ष्मो यद्वाजं भरते मती धनादित्सूर्यस्तपति तप्यतुर्वृथा ॥९ ॥

ये तुच बह्मणस्पतिदेव युद्ध में अग्रणी होकर संगठित रूप से आक्रमण करते हैं । सर्वदर्शी ब्रह्मणस्पतिदेव

जब अन्न और धन को धारण करते हैं, तब स्वाभाविक रूप से सूर्य उदित हो जाता है ॥९ ॥

२२५०. विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतो बृहस्पतेः सुविदत्राणि राध्या ।

इमा सातानि वेन्यस्य वाजिनो येन जना उभये भुञ्जते विशः ॥१० ॥

व्यापक सामर्थ्य प्रदान करने वाला, सब प्रकार मदाय, सिद्धिदायी यह धन महाबलशाली बृहस्यतिदेव ने

सबके द्वारा चाहे जाने पर बरसाया है । जिसका भोग दोनों प्रकार की (ज्ञानी और अज्ञानी) प्रजाये करती हैं ॥१० ॥

२२५१. योऽवरे वृजने विश्वथा विभुर्महामु रण्वः शवसा ववक्षिथ।

स देवो देवान््रति पप्रथे पृथु विश्वेदु ता परि भूर्ब्रह्मणस्पतिः ॥९९ ॥

सर्वव्यापी, आनन्ददायी बरह्मणस्यतिदेव प्रत्येक युद्ध में अपनी सामर्थ्य से अपनी महत्ता को प्रकट करते है ।

सभी देवों से श्रेष्ठ बह्मणस्पतिदेव समस्त विश्व में संव्याप्त रहते हैं ॥११ ॥

२२५२. विश्वं सत्यं मधवाना युवोरिदापश्चन प्र मिनन्ति व्रतं वाम्‌ ।

अच्छेन्द्राब्रह्मणस्पती हविर्नोऽननं युजेव वाजिना जिगातम्‌ ॥१२ ॥

हे ऐश्वर्यसम्पन्न इन्द्रदेव और हे बरह्मणस्यतिदेव !आप दोनों सत्यव्रत धारी है ! आप दोनों के कर्तव्य और

तिम अदि द ।जुए में जुड़े अश्वों के समान आप दोनो हमारे हविष्यात्न को ग्रहण करने के लिए (यज्ञ स्थल में)

२२५३. उताशिष्ठा अनु शृण्वन्ति वह्यः सभेयो विप्रो भरते मती थना ।

वीलु्रेषा अनु वश ऋणमाददिः स ह वाजी समिथे ब्रह्मणस्पतिः ॥१३ ॥

युद्ध रे बलशाली बरह्मणस्पतिदेव सभ्य ज्ञानी जनों के उत्तम धन को ही स्वीकार करते हैं और बलशाली

शत्रुओं से द्वेष करते हैं । द्रुतगति से जाने वाले अश्च भी (उनकी बात) सुनते है । वे ऋण से उकण करते हैं ॥१३ ॥

२२५४ ब्रह्मणस्पतेरभवद्यथावशं सत्यो मन्युर्महि कर्मा करिष्यतः ।

यो गा उदाजत्स दिवे वि चाभजन्महीव रीतिः शवस्रासरत्पृथक्‌ ॥१४ ॥

महान्‌ कार्य मे निरत बह्मणस्पतिदेव का कार्य उनकी अभिलाषा के अनुसार र सफल होता है । ब्रह्मणस्पतिदेव

गौम को बहर निकाल कर विजय प्राप्त की । सतत प्रवाहित नदियों को भांति ये गौएँ स्वतंत्र रूप से चली

२२५५५ ब्रह्मणस्पते सुयमस्य विश्वहा राय: स्याम रथ्यो३ वयस्वतः ।

बीरेषु वीराँ उप पृङ्धि नस्त्वं यदीशानो ब्रह्मणा वेषि मे हवम्‌ ॥९५ ॥

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