काण्ड २० सुक्त ६२ ५१
वच्रधारो, अनुपम हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार सांसारिक गुण-सम्पन्न, शक्तिशाली मनुष्यों को लोग बुलाते हैं;
उसी प्रकार अपनी रक्षा की कामना से विशिष्ट सोमरस द्वारा तृप्त करते हुए, हम आपकी स्तुति करते हैं ॥१ ॥
५४००. उप त्वा कर्मन्नूतये स नो युवोग्रश्चक्राम यो धृषत् ।
त्वामिद्धघवितारं ववृमहे सखाय इन्द्र सानसिम् ॥२ ॥
हे शबर संहारक देवेन्द्र ! कर्मशील रहते हुए हम अपनी सहायता के लिए तरुण और शूरवीर रूप मे विद्यमान
आपका ही आश्रय लेते रै । मित्रवत् सहायता के लिए हम आपका स्मरण करते हैं ॥२ ॥
५४०१. यो न इदमिदं पुरा प्र वस्य आनिनाय तमु व स्तुषे । सखाय इन्द्रमूतये ॥३ ॥
हे पित्रो ! पूर्वकाल से ही जो, धन- वैभव प्रदान करने वाले हैं, उन इन्रदेव की हम आपके कल्याण के लिए
स्तुति करते हैं ॥३ ॥
५४०२. हर्यश्चं सत्पतिं चर्षणीसहं स हि ष्मा यो अमन्दत ।
आ तु नः स वयति गव्यमश्यं स्तोतृभ्यो प्रधवा शतम् ॥४ ॥
हरिति अश्वौ वाले, भद्रजनों का पालन करने वाले, रिपुओं को परास्त करने वाते तथा स्तुतियों से प्रसन्न
रहने वाले इन्रदेव की हम प्रार्थना करते हैं, वे हम स्तुतिकर्ताओं को सैकड़ों गौ ओं तथा अश्वों से भरपूर ऐश्वर्य
प्रदान करें ॥४ ॥
५४०३. इन्द्राय साम गायत विप्राय बृहते बृहत् । धर्मकृते विपश्चिते पनस्यवे ॥५ ॥
हे उद्गाताओ ! विवेक-सम्पत्र. महान्, स्तुत्य, ज्ञानवान् इनद्रदेव के निमित्त आप लोग बृहत्साम (नामक
स्तोत्र) का गायन करें ॥५ ॥
५४०४. त्वमिन्द्राभिभूरसि त्व सूर्यमरोचयः । विश्वकर्मा विश्वदेवो महँ असि ॥६ ॥
सूर्य को प्रकाशित करने वाले, दुष्ट - दुराचारियों को पराजित करने वाले हे इन्द्रदेव ! आप विश्वकर्मा है विश्च
के प्रकाश हैं, महान् हैं ॥६ ॥
५४०५, विभ्राजं ज्योतिषा स्वरगच्छो रोचनं दिवः । देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे ॥७ ॥
अपने तेज का विस्तार करते हुए सूर्य को प्रकाशित करने वाले हे इनद्रदेव ! आप पथारें । समस्त देवतागण
आपसे मित्रतापूर्वक सम्पर्क स्थापित करना चाहते हैं ॥७ ॥
५४०६. तम्वभि प्र गायत पुरुहूतं पुरुष्टुतम् । इन्द्र गीर्भिस्तविषमा विवासत ॥८ ॥
हे स्तोताओ ! अनेक यजमानो दरार स्तुतिपूर्वक आवाहन किये जाने वाले, प्रशंसा के योग्य उन महान् इन्द्रदेव
को विभिन्न स्तोत्रं से स्तुति करो ॥८ ॥
-५४०७. यस्य द्विबर्हसो वृहत् सहो दाधार रोदसी । गिर्रीरज्राँ अपः स्वर्वृषत्वना ॥९ ॥
वे इद्धदेव अपनी शक्ति से शीघ्रगामी बादलों तथा गतिमान् जल को धारण करते है । उनके महान् बल को
दुलोक और पृथ्वीलोक ग्रहण करते हैं ॥९ ॥
५४०८. स राजसि पुरुष्टुतं एको वृत्राणि जिघ्नसे । इन्द्र जैना श्रवस्या च यन्तवे ॥१० ॥
बहुप्रशंसित हे इन्द्रदेव आप अपनी दिव्य कान्ति से आलोकित होते हैं । ऐश्वर्य तथा कीर्ति को प्राप्त करने
के निमित्त आप अकेले ही वृत्रासुर का वध करते हैं ॥१० ॥