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कायात ७०.१.७४ ध 6.६.88 १.8.339 कति वा क ११223390 9 छक्के.
कुछ लोग चन्द्रमाके उदय हो जानेपर चन्द्रमाको अर्य क्षीरेदार्णयवसम्भूत अन्रिनेत्रसमुद्धव ।
प्रदानं कर हस्का ध्यान करते हैं, उन्हें निम्नलिखित मन्ते गृह्णाच्य॑ शशाड्लेन्दो रोहिण्या सहितो मम ॥
हरिका ध्यान करना चाहिये--
अनघं वामन शौरि वैकुण्ठ पुरुषोत्तमम्।
(उत्तरपर्व ५५ | ४६--५०)
-इन मन्त्रे भगवान् श्रीहरिका ध्यान करके
इस मन्त्रसे प्रतिमाको स्नाने कराना चाहिये। अनन्तर
“यज्ञेश्वराय यज्ञसम्भवाय यज्ञपतये गोविन्दाय नमो नमः'-इस
मजसे अनुलेपन, अर्ध्व, धूप, दीप आदि अर्पण करे।
तदनन्तर “विश्वाय विश्वेश्वराय विश्वसम्भवाय विश्वपतये
गोविन्दाय नमो नमः ।' इस मन्त्रसे नैवेद्य निवेदित करे ।
दीप अर्पण कैरनेका मन्त्र इस प्रकार है--'धर्मेश्वराय
धर्मपतये धर्मसम्भयाय गोविन्दाय नमो नमः ।'
इस प्रकार बेदीके ऊपर रोहिणी-सहित चन्द्रमा, वसुदेव,
देवकी, नन्द, यशोदा और बलदेवजीका पूजन करे, इससे
सभी पापोंसे मुक्ति हो जाती है । चद्रोदयके समय इस मन््रसे
अन्द्रमाकों अर्ध्य प्रदान करे--
(क्तरपर्व ५५१ ५४)
आधी रातको गुड़ ओर घीसे वसोर्धाराकी आहुति देकर
ष्ठीदेवीक पूजा के । उसी क्षण नामकरण आदि संस्कार भी
करने चाहिये । नवभीके दिन प्रातःकाल मेरे ही समान
भगवतीका भी उत्सव करना चाहिये । इसके अनन्तर ब्राह्मणोंको
भोजन कराकर कृष्णो पे प्रीयताम् कहकर यथाशक्ति दक्षिणा
देनी चाहिये और यह मन्त्र भी पढ़ना चाहिये-
य॑ देव॑ देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् ।
भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त्यै तस्यै ब्रह्मात्मने नमः ॥
(उत्तरपर्व ५५ । ६०)
इसके बाद ब्राह्मणको बिदा करे और ब्राह्मण
कहे--'शाक्तिरस्तु शिवं चास्तु ।'
धर्पनन्दन ! इस प्रकार जो मेरा भक्त पुरुष अथवा नारी
देवी देवकीके इस महोत्सवको प्रतिवर्ष करता है, वह पुत्र,
संतान, आयेग्य, घन-धान्य, सदगृह, दीर्घ आयुष्य ओर राज्य
तथा सभी मनोरथोंक् प्राप्त करता है । जिस देशमें यह उत्सव
किया जाता है, वहाँ जन्म-मरण, आवागमनकी व्याधि, अवृष्टि
तथा ईति-भीति आदिका कभी भय नहीं रहता। येष समयपर
वर्षा करते हैं। पाण्डुपुत्र ! जिस घरमे यह देवकी-ब्रत किया
जाता है, वहाँ अकालमृत्यु नहीं होती और न गर्भपात होता है
तथा वैधव्य, दौर्भाग्य एवं कलह नहीं होता। जो एक बार भी
इस ज्तको करता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है। इस
बतके करनेवाले संसारके सभी सुखोंको भोगकर अन्तमें
विष्णुलोकमें निवास करते है ।
(अध्याय ५५)
दूर्वाकी उत्पत्ति एवं दूर्वाष्टरमीग्रतका विधान
अगवबान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! भाद्रपद मासके
शुक्ल पक्षकी अष्टमी तिथिको अत्यन्त पवित्र दूर्वा्ट्रमीअत
होता है। जो पुरुष इस पुण्य दूर्वाष्रमीका श्रद्धापूर्वक व्रते करता
है, उसके वंशका क्षय नहीं होता। दूवकि अद्भुरोंकी तरह
उसके कुलकी वृद्धि होती रहती है।
महाराज युधिष्ठिरने पूछा--लोकनाथ ! यह दूर्वा
कहाँसे उत्पन्न हुई ? कैसे चिरायु हुई तथा यह क्यों पवित्र मानी
गयी और लोकमें वन्ध तथा पूज्य कैसे हुई ? इसे भी बतानेकी
कृपा करें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--देवताओकि द्वारा अमृतकी
प्रप्तिके लिये क्षीर-सागरके मथे जानेपर भगवान् विष्णुने
अपनी जंघापर हाथसे पकड़कर मन्दराचलको धारण किया