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दंशन विषयुक्त है अथवा विषरहित। दूतके | सूचक है। प्रस्थानकालमें गीत आदिके शब्द शुभ

वाक्यके आदि ' स्वर' और कादि" वकि | होते हैं। दक्षिणभागमें अनर्थसूचक वाणी, चक्रवाकका

भेदसे लिपिके दो प्रकार माने जाते हैं। दूतके

वचनसे वाक्यके आरम्भे स्वर प्रयुक्त हो, तो

सर्पदष्ट मनुष्यकी जीवनरक्षा और कादिवरगोकि

प्रयुक्त होनेपर अशुभकी आशङ्का होती है । यह

मातृका-विधान दै । “क' आदि वर्गोमिं आरम्भके

चार अक्षर क्रमशः वायु, अग्नि, इन्द्र और

वरुणदेवता- सम्बन्धी होते है । कादि वगोकि पञ्चम

अक्षर नपुंसक माने गये हैँ । ' अ" आदि स्वर हस्व

और दीर्घकि भेदसे क्रमशः इन्द्र एवं वरुणदेवता-

सम्बन्धी होते हैँ । दूतके वाक्यारम्भे वायु ओर

अग्रिदैवत्य अक्षर दूषित ओर रद्र अक्षर मध्यम

फलप्रद है । वरुणदैवत्य वर्ण उत्तम ओर नपुंसक

वर्ण अत्यन्त अशुभ रहै ॥ ३१--३५॥

विषचिकित्सकके प्रस्थानकालमे मङ्गलमय

वचन, मेघ और गजराजकी गर्जना, दक्षिणपार्श्रमें

फलयुक्त वृक्ष हो और वामभागमें किसी पक्षीका

कलरव हो रहा हो, तो वह विजय या सफलताका

रुदन -एेसे लक्षण सिद्धिके सूचक हैँ । पक्षियोंकी

अशुभ ध्वनि और छींक-ये कार्यम असिद्धि

प्रदान करते है । वेश्या, ब्राह्मण, राजा, कन्या, गौ,

हाथी, ढोलक, पताका, दुग्ध, घृत, दही, शङ्ख,

जल, छत्र, भेरी, फल, मदिरा, अक्षत, सुवर्णं ओर

चादौ -ये लक्षण सम्मुख होनेपर कार्यसिद्धिके

सूचक हैँ । काष्ठपर अग्निसे युक्त शिल्पकार, मैले

कपड़ोंका बोझ ढोनेवाले पुरुष, गलेमें टेक

(पाषाणभेदक शस्त्र) धारण किये हुए मनुष्य,

श्रुगाल, गृध्र, उलूक, कौड़ी, तेल, कपाल और

निषिद्ध भस्म-ये लक्षण नाशके सूचक हैं।

विषके एक धातुसे दूसरे धातुमें प्रवेश करनेसे

विषसम्बन्धी सात रोग होते हैं। विषदंश पहले

ललाटमें, ललाटसे नेत्रमें और नेत्रसे मुखमें जाता

है। मुखमें प्रविष्ट होनेके बाद वह सम्पूर्ण धमनियोंमें

व्याप्त हो जाता है। फिर क्रमशः धातुओंमें प्रवेश

करता है॥ ३६--४१॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महाएुराणमों “ नगलक्षणकथन नामक

दो सौ चौंगानवेवाँ अध्याय पूरा हआ ॥ २९४॥

दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय

दष्ट-चिकित्सा

अग्रिदेव कहते है -- वसिष्ठ ! अब मैं मन्त्र, | नाश होता है * । घृतके साथ गोबरके रसका पान

ध्यान ओर ओषधिके द्वारा साँपके द्वारा डँसे हुए | करे। यह ओषधि साँपके डसे हुए मनुष्यके

मनुष्यकी चिकित्साका वर्णन करता हूँ । ॐ नमो | जीवनक रक्षा करती है । विष दो प्रकारके कहे

भगवते नीलकण्ठाय ' - इस मन्त्रके जपसे विषका | जाते है -' जङ्गम ' विष, जो सर्पं और मूषक

* "सुश्रुत "य मन्त्रग्हणकी विधि इस प्रकार बतायी गयौ है--' स्वौ, मांस ओर मधुं ( मद्य) -का सेवत्र छोड़कर, मिताहारी और

पवित्र होकर मन्त्र ग्रहण करना चाहिये । मन्त्र साधकको कुशके आसनपरं बैठता और सोना चाहिये। मन्तरकौ सिद्धिके लिये वह

यत्पूर्वक गन्ध, माल्य, उपहार, बलि, जप और होमके द्वारा देष#ओका पूजव करे । अविधिपूर्वक उच्चारित अधवा स्वरवर्णसे हीन मन्त्र

सिद्धिप्रद नहीं होते है । इसलिये मन्तप्रयोगफे साथ-साथ ओौषध- उपचार आदिका क्रम भी चालु रखना चाहिये ।'

(सुश्रत, उत्तर चन्त्र. कल्पस्थाने ५।१३)

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