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कार्यो दोषयुक्त माना गया है। सर्पदंशमें तो वह
विशेषतः अशुभ है। कृत्तिका, भरणी, स्वाती,
मूल, पूर्वाफल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वभाद्रपदा, अधिनी,
विशाखा, आद्रा, आश्लेषा, चित्रा, श्रवण, रोहिणी,
हस्त नक्षत्र, शनि तथा मङ्गलवार एवं पञ्चमी,
अष्टमी, षष्ठी, रिक्ता- चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी
एवं शिवा (तृतीया) तिथि सर्पदंशमें निन्द मानी
गयी हैँ । पञ्चमी और चतुर्दशी तिथियोंमें सर्पका
दंशन विशेषतः निन्दित है। यदि सर्प चारों
संध्याओकि समय, दग्धयोग या दग्धराशिमें डस
ले, तो अनिष्टकारक होता है। एक, दो और
तीन दंशनोंको क्रमशः "दष्ट, 'विद्ध' और
"खण्डित" कहते है । सर्पका केवल स्पर्श हो,
परंतु वह डैंसे नहीं तो उसे 'अदंश' कहते है ।
इसमें मनुष्य सुरक्षित रहता है। इस प्रकार
सर्पदंशके चार भेद हुए। इनमें तीन, दो एवं एक
दंश वेदनाजनक और रक्तस्नाव करनेवाले हैँ । एक
चैर और कर्मके समान आकारवाले दंश मृत्युसे
प्रेरित होते हैं। अड्भोंमें दाह, शरीरमें चींटियोंके
रेंगनेका-सा अनुभव, कण्ठशोथ एवं अन्य पीड़ासे
युक्त और व्यथाजनक गाँठवाला दंशन विषयुक्त
माना जाता है, इनसे भिन प्रकारका सर्पदंश
विषहीन होता है। देवमन्दिर, शून्यगृह, वल्मीक
(बाँबी), उद्यान, वृक्षके कोटर, दो सड़कों या
मार्गोंकी संधि, श्मशान, नदी-सागर-संगम, द्वीप,
चतुष्पथ (चौराहा), राजप्रासाद, गृह, कमलवन,
पर्वतशिखर, बिलद्वार, जीर्णकूप, जीर्णगृह, दीवाल,
शोभाञ्जन, श्लेष्मातक (लिसोडा) वृक्ष, जम्बूवृक्ष,
उदुम्बरवृक्ष, वेणुवन (बँसवार), वरवृक्ष और
जीर्णं प्राकार (चहारदीवारी) आदि स्थानोंमें सर्प
निवास करते है । इन्द्रिय-छिद्र, मुख, हदय, कक्ष,
जत्रु (ग्रीवामूल), तालु, ललाट, ग्रीवा, सिर,
चिञुक (दुदी), नाभि और चरण-इन अङ्गोमिं
सर्पदंश अशुभ है । विषचिकित्सकको सर्पदंशकी
सूचना देनेवाला दूत यदि हाथोंमें फूल लिये हो
सुन्दर वाणी बोलता हो, उत्तम बुद्धिसे युक्त हो,
सर्पदष्ट मनुष्यके समान लिङ्ग एवं जातिका हो,
श्वेतवस्त्रधारी हो, निर्मल और पवित्र हो, तो शुभ
माना गया है । इसके विपरीत जो दूत मुख्यद्वारके
सिवा दूसरे मार्गसे आया हो, शस्त्रयुक एवं
प्रमादी हो, भूमिपर दृष्टि गड़ाये हो, गंदा या
बदरंग वस्त्र पहने हो, हाथमें पाश आदि लिये
हो, गद्गदकण्ठसे बोल रहा हो, सूखे काठपर
बैठा हो, खिन हो तथा जो हाथमे काले तिल
लिये हो या लाल रंगके धब्बेसे युक्त वस्त्र धारण
किये हो अथवा भीगे वस्त्र पहने हुए हो, जिसके
मस्तकके बालॉपर काले और लाल रंगके फूल
पड़े हों, अपने कुचोंका मर्दन, नखोंका छेदन या
गुदाका स्पर्श कर रहा हो, भूमिको पैरसे खुरच
रहा हो, केशोंको नोंच रहा हो या तिनके तोड़
रहा हो, ऐसे दूत दोषयुक्त कहे गये हैं। इन
लक्षणोंमेंसे एक भी हो तो अशुभ है॥ २--२८॥
अपनी और दूतकी यदि इडा अथवा पिङ्गला
“या दोनों ही नाड़ियाँ चल रही हों, उन दोनोंके
इन चिह्नोंसे डैंसनेवाले सर्पको क्रमशः स्त्री, पुरुष
अथवा नपुंसक जाने। दूत अपने जिस अंगका
स्पर्श करे, रोगीके उसी अंगमें सर्पका दंश हुआ
जाने। दूतके चैर चञ्चल हों तो अशुभ और यदि
स्थिर हों तो शुभ माने गये हैं ॥ २९-३०॥
किसी जीवके पार्श्देशमें स्थित दूत शुभ और
अन्य भागोंमें स्थित अशुभ माना गया है । दूतके
निवेदनके समय किसी जीवका आगमन शुभ
और गमन अशुभ है। दूतकी वाणी यदि अत्यन्त
दोषयुक्त हो अथवा सुस्पष्ट प्रतीत न होती हो तो
वह निन्दित कही गयी है। उसके सुस्पष्ट एवं
विभक्तं वचनोंद्वारा यह ज्ञात होता है कि सर्पका