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अः ९६ ]

* दशम स्कन्थ *

६०३

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इसके बाद कमलदललोचन भगवान्‌ श्रीकृष्ण बड़े

भाई बलरामजीके साथ ब्रजमें आये । उस समय उनके

साथी म्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति

करते जाते थे । व्यो न हो; भगवानकी लीलाओंका

श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है ॥ ४१ ॥ उस

समय श्रीकृष्णकी धराली अलकोंपर गौ ओकि खुरोंसे

उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंखका मुकुट

था और बालोमे सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे ।

उनके नेत्रोंमें मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान

थी । वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी

ग्वालबाल उनकी ललित कीर्तिका गान कर रहे थे ।

वेशीकी ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही

व्रजसे बाहर निकल आयी । उनकी आँखें न जाने कबसे

श्रीकृष्णके दर्शनके लिये तरस रही थीं॥ ४२ ॥ गोपियोंने

अपने नेत्ररूप भ्रमरोंसे भगवानके मुखारविन्दका

मकरन्द-रस पान करके दिनभरके विरहकी जलन शान्ते

की । और भगवानने भी उनकी लाजभरी हैंसी तथा

विनयसे युक्त प्रेमभरी तिरी चितवनका सत्कार स्वीकार

करके ब्रजमें प्रवेश किया ॥ ४३ ॥ उधर यशोदामैया और

रोहिणीजीका हदय वात्सल्यसनेहसे उमड़ रहा था । उन्होंने

श्याम और रामके घर पहुँचते ही उनकी इच्छाके अनुसार

तथा समयके अनुरूप पहलेसे ही सोच-सैंजोकर रक्खी

हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं ॥ ४४ ॥

माताओंने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया ।

इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरनेकी मार्गकी थकान दूर

हो गयी । फिर उन्होंने सुन्दर वस्र पहनाकर दिव्य पुष्पोंकी

माला पहनायी तथा चन्दन लगाया॥४५॥ तत्पश्चात्‌

दोनों भाइयोने माताओंका परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न

भोजन किया । इसके बाद बड़े लाड-प्यारसे दुलार-दुलार

कर यशोदा और रोहिणीने उन्हें सुन्दर शय्यापर सुलाया ।

श्याम और राम बड़े आरामसे सो गये ॥ ४६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दाबनमें अनेकों

लीलाएँ करते । एक दिन अपने सखा म्वालवालोकि साथ

वे यमुनातटपर गये । राजन्‌ ! उस दिन बलगामजी उनके

साथ नहीं ये ॥ ४७॥ उस समय जेठ-आषाढ़के घामसे

गौएँ और म्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे । प्याससे

उनका कण्ठ सूख रहा था । इसलिये उन्होंने यमुनाजीका

विषैला जल पी लिया ॥ ४८ ॥ परीक्षित्‌ ! होनहारके वश

उन्हें इस बातका ध्यान ही नहीं रहा था । उस विचैले

जलके पीते ही सब गौत और ग्वालबाल प्राणहीन होकर

यमुनाजीके तटपर गिर पड़े ॥ ४९ ॥ उन्हें ऐसी अवस्थामे

देखकर योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णे अपनी

अमृत बरसानेवाली दृष्टिसे उन्हें जीवित कर दिवा । उनके

स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे॥ ५० ॥

परीक्षित्‌ ! चेतना आनेपर वे सब यमुनाजीके तटपर उठ

खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरेकी ओर

देखने लगे॥ ५१॥ राजन्‌ ! अन्तमें उन्होंने यही निश्चय

किया कि हमलोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके

थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्णे अपनी अनुप्रहभरी दृष्टिसे

देखकर हमें फिरसे जिला दिया है॥५२॥

-- "नुन

सोलहवाँ अध्याय

कालियपर कृपा

्रीशुकदेवजी कहते हैं-- परीक्षित्‌! भगवान्‌ जीव नहीं था, ऐसी दशामे वह अनेक युगोतक जलमे कयो

श्रीकृष्णने देखा कि महाविषधर कलिय नागने यमुनाजीका

जल विषैला कर दिया है । तब यमुनाजीको शुद्ध करनेके

विचारसे उन्होंने वहाँसे उस सर्पको निकाल दिया ॥ १ ॥

राजा परीक्षित्ले पूछा - ब्रह्मन्‌ ¦

श्रीकृष्णने यमुनाजीके अगाध जलमें किस प्रकार उस

सर्पका दमन किया ? फिर कालिय नाग तो जलचर

और कैसे रहा? सो बतलाइये॥ २ ॥ ब्रह्मस्वरूप

महात्मन्‌ ! भगवान्‌ अनन्त हैं । वे अपनी लीला प्रकट

करके स्वच्छन्द विहार करते है । गोपालरूपसे उन्होंने जो

भगवान्‌ उदार लीला की है, वह तो अमृतस्वरूप है । भला, उसके

सेवनसे कौन तृप्त हो सकता है ? ॥३॥

श्रीशुकदेवजीने कहा - परीक्षित्‌ ! यमुनाजीमे

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