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एक सौ अड़सठवाँ अध्याय

महापातकोंका वर्णन

पुष्कर कहते हैं-- जो मनुष्य पापोंका प्रायश्चित्त

न करें, राजा उन्हें दण्ड दे। मनुष्यको अपने

पापोंका इच्छासे अथवा अनिच्छासे भी प्रायश्चित्त

करना चाहिये। उन्मत्त, क्रोधी ओर दुःखसे आतुर

मनुष्यका अन्न कभी भोजन नहीं करना चाहिये।

जिस अन्नका महापातकी ने स्पर्श कर लिया हो,

जो रजस्वला स्त्रीद्वार छूआ गया हो, उस अन्नका

भी परित्याग कर देना चाहिये। ज्यौतिषी, गणिका,

अधिक मुनाफा करनेवाले ब्राह्मण और क्षत्रिय,

गायक, अभिशप्त, नपुंसक, घरमें उपपतिको

रखनेवाली स्त्री, धोबी, नृशंस, भाट, जुआरी,

तपका आडम्बर करनेवाले, चोर, जलाद्‌,

कुण्डगोलक, स्त्रियोंद्रारा पराजित, वेदोंका विक्रय

करनेवाले, नर, जुलाहे, कृतघ्न, लोहार, निषाद,

रैगरेज, ढोंगी संन्यासी, कुलटा स्त्री, तैली,

आरूढ-पतित और शत्रुके अन्नका सदैव परित्याग

करे । इसी प्रकार ब्राह्मणके चिना बुलाये ब्राह्मणका

अन्न भोजन न करे। शूद्रको तो निमन्त्रित होनेपर

भी ब्राह्मणके अन्नका भोजन नहीं करना चाहिये ।

इनमेंसे विना जाने किसीका अन्न खानेपर तीन

दिनतक उपवास करे। जान-बूझकर खा लेनेपर

*कृच्छुत्रद' करे । वीर्य, मल, मूत्र तथा श्रपाक

चाण्डालका अन्न खाकर 'चान्द्रायणब्रत' करे। मृत

व्यक्तिके उद्देश्यसे प्रदत्त, गायका सूँघा हुआ, शुद्र

अथवा कुत्तेके द्वारा उच्छिष्ट किया हुआ तथा

पतितका अन्न भक्षण करके “तप्तकृच्छू' करे।

किसके यहाँ सूतक होनेपर जो उसका अन्न

खाता है, वह भी अशुद्ध हो जाता है। इसलिये

अशौचयुक्त मनुष्यका अन्न भक्षण करनेपर ' कृच्छुत्रत'

करे। जिस कुएँमें पाँच नखोंवाला पशु मरा पड़ा

हो, जो एक बार अपवित्र वस्तुसे युक्त हो चुका

हो, उसका जल पीनेपर श्रेष्ठ ब्राह्मणको तीन

दिनतक उपवास रखना चाहिये। शुद्रकों सभी

प्रायश्चित्त एक चौथाई, वैश्यको दो चौथाई और

क्षत्रियकों तीन चौथाई करने चाहिये। ग्रामसूकर,

गर्दभ, उष, शृगाल, वानर और काक-इनके

मल-मूत्रका भक्षण करनेपर ब्राह्मण ' चान्द्रायण-

व्रत" करे। सूखा मांस, मृतक व्यक्तिके उद्देश्यसे

दिया हुआ अन्न, करक तथा कच्चा मांस खानेवाले

जीव, शूकर, उष्ट, शृगाल, वानर, काक, गौ,

मनुष्य, अश्च, गर्दभ, छत्ता शाक, मुर्गे और

हाथीका मांस खानेपर ' तप्तकृच्छ्र ' से शुद्धि होती

है । ब्रह्मचारी अमाश्राद्धमें भोजन, मधुपान अथवा

लहसुन और गाजरका भक्षण करनेपर

“प्राजापत्यकृच्छु ' से पवित्र होता है। अपने लिये

पकाया हुआ मांस, पेलुगव्य (अण्डकोषका मांस),

पेयूष (व्यायी हुई गौ आदि पशुओंका सात

दिनके अंदरका दूध), श्लेष्मातक ( बहुवार),

मिट्टी एवं दूषित खिचड़ी, लप्सी, खीर, पूआ

ओर पूरी, यज्ञ-सम्बन्धी संस्कार-रहित मांस,

देवताके निमित्त रखा हुआ अन्न और हवि--

इनका भक्षण करनेपर “चान्द्रायण-त्रत' करनेसे

शुद्धि होती है। गाय, भैंस और बकरीके दूधके

सिवा अन्य पशुओंके दुग्धका परित्याग करना

चाहिये। इनके भी ब्यानेके दस दिनके अंदरका

दूध काममें नहीं लेना चाहिये। अग्निहोत्रकी

प्रज्बलित अग्निम हवन करनेवाला ब्राह्मण यदि

स्वेच्छपूर्वक जौ और गेहूँसे तैयार को हुई

वस्तुओं, दूधके विकारों, वागधाड्गवचक्र आदि

तथा तैल-घी आदि चिकने पदार्थोंसे संस्कृत

बासी अन्नको ख्रा ले तो उसे एक मासतक

*चान्द्रायणब्रत' करना चाहिये; क्योकि वह दोष

वीरहत्याके समान माना जाता है ॥ १--२३॥

ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुतल्पगमन-ये

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