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वेद

* पुराणं परमं पुण्य॑ भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ «

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्ख

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चाहिये । पूर्व आदि दिशा ओमि इन्द्र, यम, वरूण और कुबेरका

पूजन कर शुक्ल वन तथा चन्दनसे भूषित, हाथमे कुश लेकर

यजमानको एक पीढ़ेके ऊपर भगवान्‌के सामने बैठना चाहिये ।

यजमानको एकाग्रचित्त हो कलशसे गिरती जलधारा

(वसोर्धारा) को निप्रमन्रका पाठ करते हुए भगवान्‌को

प्रणामपूर्वक अपने सिरपर धारण करना चाहिये--

मस्ते देवदेवेश नमस्ते भुवनेश्वर ।

व्रतेनानेन मां पाहि परमात्पन्‌ नोऽस्तु ते ॥

(उत्तरपर्व ७४।४२)

उस समय ब्राह्मणोको चारो दिशःओकि कुण्डॉमें हवन

करना चाहिये । साथ ही शन्तिकाध्याय और विष्णुसूक्तका पाठ

किया जाना चाहिये । शङ्ख-ध्वनि करनी चाहिये । भाँति-भाँतिके

वाद्योको बजाना चहिये । पुण्य-जयघोष करना चाहिये ।

माङ्गलिक स्तुति-पाठ करना चाहिये । इस तरहके माङ्गलिक

कार्य करते हुए यजमानको हरिवंश, सौपर्णिक (सुपर्णसूक्त)

आख्यान ओर महाभारत आदिका श्रवण करते हुए जागरण-

पूर्वक रात्रि व्यतीत करनी चाहिये। भगवान्‌के ऊपर गिरती हुई

वसोर्धारा समस्त सिद्धियोंक्रे प्रदान करनेवाली है। दूसरे दिन

प्रातः यजमान ब्राह्मणोकि साथ किसी पुष्य जलाशय अथवा

नदी आदिम ज्ञानकर शुक्ल वख पहनकर प्रसन्नचित्तसे

भगवान्‌ भास्करको अर्ध्य दे । पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारोंसे

भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी पुजा करे । हवन करके भक्तिपूर्वकं

पूर्णाहुति दे । यज्ञम उपस्थित सभी ब्राह्मणोंका शय्या, भोजन,

गोदान, वल, आभूषण आदिद्राय पूजन करे और आचार्यकी

विशेषरूपसे पूजा करे । जैसे ब्राह्मण एवं आचार्य संतुष्ट हों

वैसा यल करे, क्योंकि आचार्य साक्षात्‌ देवतुल्य गुरु है। दीनो,

अनाथो तथा अभ्यागतोंको भी संतुष्ट करे। अनन्तर स्वये भी

हविष्यको भोजन करे।

राजन्‌ ! इस प्रकार मैने इस भीमद्वादशीत्रतका विधान

बतलाया, इससे पापिष्ठ व्यक्ति भी पापमुक्तं हो जाते है, इसमें

संदेह नहीं। यह विष्णुयाग सैकड़ों वाजपेय एवं अतिरात्र

यागोसे विशेष फलदायी है । इस भीमद्वादशीका ब्रत करनेवाले

सी-पुरुष सात जन्योतक अखण्ड सौभाग्य, आयु, आरोग्य

तथा सभी सम्पदाओक प्राप्त करते है । अनन्तर मृत्युके बाद

क्रमशः विष्णुपुर, रुद्रलोक तथा ब्रह्मलोकको प्राप्त करते है ।

इस पृथ्वीलोकमे आकर पुनः वह सम्ूरणं पृथ्वीका अधिपति

एवं चक्रवर्ती धार्मिक राजा होता है।

इस ब्रतको प्राचीन कालमें महात्मा सगर्‌, अज, धुधुमार,

दिलीप, ययाति तथा अन्य महान्‌ श्रेष्ठ राजाओनि किया था और

सी, वैश्य एवं शूने भी धर्मकी कामनासे इस व्रतकों किया

था। भृगु आदि मुनियों और सभी वेदज्ञ ब्राह्मणोंद्वारा भी इसका

अनुष्ठान हुआ था। हे राजन्‌ ! आपके पूछनेपर मैंने इसे

बतलाया है, अतः आजसे यह द्वादशी आपके (भीमद्वादशी)

नामसे पृथ्वीपर ख्याति प्राप्त करेगी । (अध्याय ७३-७४)

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श्रवणद्वादशी-ब्रतके प्रसंगमें एक वणिक्‌की कथा

युधिष्ठिरने पृषछा-- भगवन्‌ ! जो व्यक्ति दीर्घं उपवास

करनेमें असमर्थ हो उसके लिये कौन-सा व्रत है ? इसे आप

बतलायें ।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--राजन्‌ ! भाद्रपद मासके

शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथि यदि श्रवण नक्षत्रसे युक्त हो तो

इसमें व्रत करनेसे सभी कामना पूर्ण हो जाती हैं। यह परम

पवित्र एवं महान्‌ फल देनेवाली द्वादशी है। इस व्रतमें

आतःकाल नदी-संगममे जाकर स्नान करके द्रादशीमें उपवास

करना चाहिये। एकमात्र इस श्रवणद्वादशीके ब्रत कर लेनेसे

द्वादश द्वादशी-त्रतोंका फल प्राप्त हो जाता है। यदि इस

तिथिमें बुधवास्का भी योग हो जाय तो इसमें किये गये समस्त

कर्म अक्षय हो जाते हैं। इस ब्रतसे गक्लस्नानका लाभ होता

है। इस ब्रतमें एक सुन्दर कलशकी विधिवत्‌ स्थापना कर

उसमें भगवान्‌ विष्णुम प्रतिमा यथाविधि स्थापित करनी

चाहिये । अनन्तर भगवान्की अङ्गपूजा करनी चाहिये । रात्रिमें

जागरण करे । प्रभातकालमें स्वानकर गरुडध्वजकी पूजा करे

ओर पुष्पाञ्जलि देकर इस प्रकार प्रार्थना करे--

जो नमस्ते गोविन्द. बुधअवणसंज्ञक ।

अधौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ॥

(क््तरपर्व ७५। १५)

अनन्तर बेदज्ञ एवं पुराणश्च ब्राह्मणोंकी पूजा करे और

प्रतिमा आदि सब पदार्थ “प्रीयतां मे जनार्दन:' कहकर

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