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* श्रीमद्धागवत »

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44.40.44... जे जो मी मेज 44.4.04. 44.4.44 44.4.44... 44.4.44... 4.0.444. 44... 6.44.4. ले ते कि की

है ॥ ३५॥ देवगण । हम अकिञ्चन रै। खेती कट

जानेषर अथवा अनाजकी हार उठ जानेपर उसमेंसे

गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते है ओर उससे अपने

देवकार्यं तथा पितृकार्यं सम्पन्न कर लेते है । लोकपालो !

इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब

मैं पुरोहितीकी निन्दनीय वृत्ति कयो कहूँ? उससे तो

केवल वे हो लोग प्रसन्न होते है, जिनकी बुद्धि

बिगड़ गयी रै॥ ३६॥ जो काम आपलोग मुझसे

कराना चाहते हैं, वह निन्दनीय है--फिर भी मैं

आपके कामसे मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि

आपलोगोकी माँग ही कितनी है। इसलिये आपलोगोका

मनोरथ में तन-मन-धनसे पूरा करूँगा॥३७॥

श्रीशुकदेक्जी कहते हैं--परीक्षित्‌ ! विश्वरूप बड़े

तपस्यौ थे। देवताओंसे ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके

करण करनेपर वै बड़ी लगनके साथ उनकी पुरोहिती

करने लगे ॥ ३८ ॥ यद्यपि शुक्राचार्यन अपने नीतिबलसे

असुरोंकी सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ

विश्वरूपने वैष्णवी विद्याके प्रभावसे उनसे वह सम्पत्ति

छीनकर देवराज इनदरको दिला दी॥३९॥ राजन्‌ !

जिस विद्यासे सुरक्षित होकर इन्द्रने असुरोंकी सेनापर

विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूपने ही

उन्हें उपदेश किया था॥ ४० ॥

मे ते के के के

आठवाँ अध्याय

नारायणकक्चका उपदेश

राजा परीक्षितले पूछा--भगवन्‌ ! देवराज इन्द्रने

जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरङ्गिणी सेनाको

खेल-खेलमें--अनायास हौ जीतकर त्रिलोकीकी

राजलक्ष्मीका उपभोग किया, आप उस नारायणकवचको

मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे

सुरक्षित होकर रणभूमिमें किस प्रकार आक्रमणकारी

शत्रुऑपर विजय प्राप्त की ॥ १-२ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा--परीक्षित्‌ ! जब देवताओंनि

विश्वरूपको पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्रके प्रश्न

करनेपर विश्वरूपने उन्हे नारायणकवचका उपदेश किया ।

तुम एकाग्रचित्तसे उसका श्रवण करो ॥ २ ॥

विश्वरूपने कहा--देवराज इन्द्र! भयका अवसर

उपस्थित होनेपर नारायणकवच धारण करके अपने

शरीरको रक्षा कर लेनी चाहिये। उसकी विधि यह है कि

पहले हाथ-पैर घोकर्‌ आचमन करे, फिर हाथमे कुशकी

पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जाय। इसके बाद

कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलनेका निश्चय करके

पवित्रतासे "ॐ नमो नारायणाय' और "ॐ नमो भगवते

वासुदेवाय'--इन मन्त्रोकि द्वार हदयादि अङ्गन्यास तथा

अङ्गुष्ठादि -कट्यास करे । पहले * ॐ नमो नारायणाय' इस

अष्टक्षर मन्त्रके ॐ आदि आठ अक्षरोंका क्रमशः

चैर, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और

सिरमें व्यास करे । अथवा पूर्वोक्त मन््रके मकारसे लेकर

ॐकारपर्यन्त आठ अक्षका सिरसे आरम्भ करके उन्हीं

आट अद्मि विपरीत क्रमसे न्यास करें॥ ४-६॥

तदनन्तर ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय'--इस द्वादशाक्षर

मन्त्रके ॐ आदि बारह अक्षरोका दायो तर्जनीसे बायों

तर्जनीतक दोनो हाथकी आठ अँगुलियों और दोनों

अँगूठोंकी दो-दो गाँठोंमें न्यास करें॥७॥ फिर "ॐ

विष्णवे नमः' इस मन्त्रके पहले अक्षर "ॐ का हृदयमें

'वि' का ब्रह्मर्मे, 'ष्‌' का भौहोंके बीचमें, 'ण' का

चोटीमें, 'वे' का दोनों नेत्रोमें और 'न' का शरीरकी सब

गमि न्यास करे। तदनन्तर 'ॐ मः अस्राय फट्‌'

कहकर दिग्बन्ध करे । इस प्रकार न्यास करनेसे इस

विधिको जाननेवाला पुरुष मन््रस्वरूप हो जाता

दै ॥ ८-१० ॥ इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, र्म, यश, लक्ष्मी

ज्ञान और वैराग्यसे परिपूर्ण इश्देव भगवानका ध्याने करे

और अपनेको भी तदरूप ही चिन्तन करे । तत्पश्चात्‌

विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवचका पाठ

करे-- ॥ ११॥

"भगवान्‌ श्रीहरि गरुडजीकी पीठपर अपने

चरणकमल रक्खे हुए दै । अणिमादि आठों सिद्धियां

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