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शान्तिसे संयुक्त करो'। चौदहों भुवन गौओंके

अङ्गे अधिष्ठित हैं। इसलिये मेरा इहलोक और

पर्लोकमे भी मङ्गल होः। जैसे केशव और

शिवकी शय्या अशून्य है, उसी प्रकार शय्यादानके

प्रभावसे जन्म-जन्मरमे मेरी शय्या भी अशून्य रहे" ।

जैसे सभी रत्नों समस्त देवता प्रतिष्ठित हैं, उसी

प्रकार वे देवता रत्नदानके उपलक्ष्यमें मुझे शान्ति

प्रदान करें"। अन्य दान भूमिदानकों सोलहवीं

कलाके समान भी नहीं हैं, इसलिये भूमिदानके

प्रभावसे मेरे पाप शान्त हो जायं ^ ॥ २७-३१॥

दक्षिणायुक्त अयुतहोमात्मक ग्रहयज्ञ युद्धमें

विजय प्राप्त करनेवाला है । विवाह, उत्सव, यज्ञ,

प्रतिष्ठादि कर्ममें इसका प्रयोग होता है । लक्षहोमात्मक

और कोटिहोमात्मक -ये दोनों ग्रहयज्ञ सम्पूर्ण

कामनाओंकी प्राति करानेवाले है । अयुतहोमात्मक

यज्ञके लिये गृहदेशमे यज्ञमण्टपका निर्माण करके

उसमें हाथभर गहरा मेखलायोनियुक्त कुण्ड बनावे

और चार ऋत्विजोकिा वरण करे अथवा स्वयं

अकेला सम्पूर्ण कार्य करे। लक्षहोमात्मक यज्ञमें

पूर्वकी अपेक्षा सभी दसगुना होता है। इसमें चार

हाथ या दो हाथ प्रमाणका कुण्ड बनाये। इसमें ताक्ष्यका

पूजन विशेष होता है। (तार्क्ष्य-पूजनका मन्त्र

यह है--) "तायं! सामध्यनि तुम्हारा शरीर है। तुम

श्रीहरिके वाहन हो । विष-रोगको सदा दूर करनेवाले

हो। अतएव मुझे शान्ति प्रदान करो '॥ ३२--३५३ ॥

तदनन्तर कलशोंको पूर्ववत्‌ अभिमन्त्रित करके

* अग्निपुराण +

लक्षहोमका अनुष्ठान करे। फिर “वसुधारा' देकर

शय्या एवं आभूषण आदिका दान करे। लक्षहोममें

दस या आठ ऋत्विज्‌ होने चाहिये। दक्षिणायुक्त

लक्षहोमसे साधक पुत्र, अन्न, राज्य, विजय, भोग

एवं मोक्ष आदि प्राप्त करता है। कोटि-होमात्मक

ग्रहयज्ञ पूर्वोक्त फलोंके अतिरिक्त शत्रुओंका विनाश

करनेवाला है। इसके लिये चार हाथ या आठ

हाथ गहरा कुण्ड बनाये और बारह ऋत्विजोंका

वरण करे। पटपर पच्चीस या सोलह तथा द्वारपर चार

कलशोंकी स्थापना करें। कोटिहोम करनेवाला

सम्पूर्ण कामनाओंसे संयुक्त होकर विष्णुलोकको

प्राप्त होता है। ग्रह-मन्त्र, वैष्णव-मन्त्र, गायत्री

मन्त्र, आनेय-मन्त्र, शैव-मन्त्र एवं प्रसिद्ध वैदिक-

मन्त्रोंसे हवन करें। तिल, यव, घृत और धान्यका

हवन करनेवाला अश्वमेधयक्ञके फलको प्राप्त

करता है । विद्वेषण आदि अभिचार- कर्मों त्रिकोण

कुण्ड विहित है । इनमें रक्तवस््रधारौ और उन्मुक्तकेश

मन्त्रसाधकको शत्रुके विनाशका चिन्तन करते

हुए, बाँयें हाथसे श्येन पक्षीकी लक्ष अस्थियोंसे

युक्त समिधाओंका हवन करना चाहिये † (हवनका

मन्त्र इस प्रकार है--)

“दु्भि्ियास्तस्थे सनतु यो देष ह॑ फट्‌

फिर छुरेसे शत्रुकी प्रतिमाको कार डाले और

पिष्टमय शत्रुका अग्निमें हवन करे। इस प्रकार जो

अत्याचारी शत्रुके विनाशके लिये यज्ञ करता है,

वह स्वर्गलोकको प्राप्त करता है॥ ३६--४४॥

= ~ & + ७ दूर

इस प्रकार आदि आरनेव महापुराणमें “गरहोके अवृत-लक्ष-कोरि हवत्रोंका वर्णन” नामक

एक सौ सड़सठवाँ अध्याय या हुआ॥ १६७॥

सर्वयज्ञानामज़त्वेन

भुवनानि

केशवस्य

सर्वै देयाः

कला

विद्वेषण' तामस अभिचार-कर्म

शिवस्य

व्यवस्थित: । योनिर्विभावसोर्धित्वमतः शान्ति प्रयच्छ ये॥ २७३

चतुदश । सस्मात्तस्माच्छिवं मे स्यादिह लोके परत्र च॥ २८४

च । श्यो ममाप्यशुन्यास्तु दता अन्यनि जन्मनि ४ २९॥

प्रतिष्ठिताः । तथा शान्तिं प्रयच्छन्तु रत्नदानेव में सुराः ४ ३०॥

कृहंति षोदकशीम्‌ । दावान्यन्याति मे रान्तिरभूमिदानाद्‌ भवत्विह ॥ ३१॥

॥ इसे तामस लोग हौ किया करते हैं।

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