करना है, उसे आज ही कर ले; जिसे दोपहर | नहीं रहता। जो मृत्युसे ग्रस्त है, उसे औषध और
बाद करना है, उसे पहले ही पहरमें कर ले; | मन्त्र आदि नहीं बचा सकते। जैसे बछड़ा गौओंके
क्योंकि मृत्यु इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करती कि | झुंडमें भी अपनी माँके पास पहुँच जाता है, उसी
इसका कार्य पूरा हो गया है या नहीं ? मनुष्य | प्रकार पूर्वजन्मका किया हुआ कर्म जन्मान्तरमें भी
खेत-बारी, बाजार-हाट तथा घर-द्वारमें फँसा | कर्ताकों अवश्य ही प्राप्त होता है। इस जगतृका
होता है, उसका मन अन्यत्र लगा होता है; इसी | आदि और अन्त अव्यक्त है, केबल मध्यकी
दशामें जैसे असावधान भेड़को सहसा भेड़िया | अवस्था ही व्यक्त होती है। जैसे जीवके इस शरीरे
आकर उठा ले जाय, वैसे ही मृत्यु उसे लेकर | कुमार तथा यौवन आदि अवस्थाएँ क्रमशः आती
चल देतों है। कालके लिये न तो कोई प्रिय है, | रहती हैं, उसी प्रकार मृत्युके पश्चात् उसे दूसरे
न द्वेषका पात्र* ॥ ६--१०॥ शरीरकी भी प्राप्ति होती है। जैसे मनुष्य (पुराने
आयुष्य तथा प्रारब्धकर्म क्षीण होनेपर वह | बस्त्रको त्यागकर) दूसरे नूतन वस्त्रको धारण
हटात् जीवको हर ले जाता है। जिसका काल | करता है, उसी प्रकार जीव एक शरीरकों छोड़कर
नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणोंसे घायल होनेपर | दूसरेको ग्रहण करता है। देहधारी जीवात्मा सदा
भी नहीं मरता तथा जिसका काल आ पहुँचा है, | अवध्य है, वह कभी मरता नहीं; अतः मृत्युके
बह कुशके अग्रभागसे ही छू जाव तो भी जीवित | लिये शोक त्याग देना चाहिये ॥ ११--१४॥
इस प्रकार आदि जाग्नेव महापुराणमें 'अम्ल॑स्कृत आदिको जुद्धिका वर्णन” वामक
एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १५९ #
एक सौ साठवाँ अध्याय
वानप्रस्य-आश्रम
पुष्कर कहते हैं-- अब मैं वानप्रस्थ और | गृहस्थ पुरुषको उचित है कि अपनी संतानकौ
संन्यासि्योके धर्मका जैसा वर्णन करता हूँ, सुनो । | संतान देखकर वनका आश्रय ले और आयुका
सिरपर जटा रखना, प्रतिदिन अग्निहोत्र करना, | तृतीय भाग वनवासमें हौ बितावे। उसे आश्रमे
धरतीपर सोना और मृगचर्म धारण करना, वने | वह अकेला रहे या पत्नीके साथ भी रह सकता
रहना, फल, मूल, नीवार (तिन्नी) आदिसे | है । (परंतु दोनों ब्रह्मचर्यका पालन कर ।) गर्मीके
जीवन-निर्वाह करना, कभी किसीसे कुछ भी | दिरनेमिं पञ्चाग्निसेवन करे । वर्षाकाले खुले आकाशके
दान नं लेना, तीनों समय स्नान करना, ब्रह्मचर्यत्रतके | नीचे रहे। हेमन्त-ऋतुमें रातभर भीगे कपड़े
पालनमें तत्पर रहना तथा देवता ओर अतिथियोंकी | ओढ़कर रहे । (अथवा जलें रहे ।) शक्ति रहते
पूजा करना-- यह सब वानप्रस्थीका धर्म है।| हए वानप्रस्थीको इसी प्रकार उग्र तपस्या करनी
* पततां भुक्तिमुक्तयादिष्रद एको हरिधुंवम् । दृष्टा लोकान् त्रियमराणान् सहाय॑ धर्ममाचोत् ॥
¡ भूतोऽपि बान्धवः शक्तों नाकृतं नं गतम् । जायावर्ज हि सर्वस्य याम्यः पन्था विभिद्यते 8
धर्म एको कजत्वेनं यत्रकरचकहपिलम् । %:कार्यप्द्य कुर्वीत पूर्वाड्े चा55पराद्षिकम् ॥
न हि प्रतीते मृत्यु: कृतं वाऽस्य न खा कृतम् । शेत्रापणगृहासक्तमत्यत्रगततमरानसम्
मूत्युरादाय गच्छति । न कालस्य प्रियः कश्चिद् द्वेष्पआल्य > विधरतेढ॥
(अग्निर १५९।६- १०)