साथ निवृत्त हो जाता है। गुरु अशौचसे लघु | प्राप्त हो तो तीन दिन और अधिक बीतनेपर
अशौच बाधित होता है; लघुसे गुरु अशौचका | सपिण्डोंकी शुद्धि होती है। दोनों ही प्रकारके
बाध नहीं होता। मृतक अथवा सूतकमें यदि | अशौचोंमें दस; दिनतक उस कुलका अन नहीं
अन्तिम रात्रिके मध्यभागे दूसरा अशौच आ | खाया जाता है। अशौचमें दान...आदिका...भी
पड़े तो उस शेष समये ही उसकी भी निवृत्ति | अधिकार नहीं रहता। अशौचमें किसीके यहाँ
हो जानेके कारण सभी सपिण्ड पुरुष शुद्ध हो | भोजन करनेपर प्रायश्चित्त करना चाहिये। अनजानमें
जाते हैं। यदि रात्रिके अन्तिम भागमें दूसरा | भोजन करनेपर पातक नहीं लगता, जान-बूझकर
अशौच अवे तो दो दिन अधिक बीतनेपर | खानेवालेकों एक दिनका अशौच प्राप्त होता
अशौचकी निवृत्ति होती है तथा यदि अन्तिम | है॥ ६२--६९॥
इस प्रकार आदि आरेय महापुराणमें 'जनत-मरणके अजौवका वर्णतर” नासक
एक सौ अट्टाकनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १५८ ॥
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एक सौ उनसठवाँ अध्याय
असंस्कृत आदिकी शुद्धि
पुष्कर कहते हैं-- मृतकका दाह - संस्कार | कमलके सदृश नेत्रवाले भगवान् नारायण अविनाशो
हुआ हो या नहीं, यदि श्रीहरिका स्मरण किया | हैं, अतः उन्हें जो कुछ अर्पण किया जाता है,
जाय तो उससे उसको स्वर्ग ओर मोक्ष -दोनोंकी | उसका नाश नहीं होता। भगवान् जनार्दन जीवका
प्राप्त हो सकती है।' मृतककी हड्डियोंकों गड्भाजीके | पतनसे त्राण (उद्धार) करते है, इसलिये वे ही
जलम डालनेसे उस प्रेत (मृत व्यक्ति)-का | दानके सर्वोत्तम पात्र ह ॥ १--५॥
अभ्युदय होता है । मनुष्यकी हड्डी जबतक गङ्खाजीके | निश्चय ही नीचे गिरनेवाले जीवको भी भोग
जले स्थित रहती है, तबतक उसका स्वर्गलोके | ओर मोक्ष प्रदान करनेवाले एकमात्र. श्रीहरि ही
निवास होता है †^ आत्मत्यागो तथा पतित मनुष्योकि | है । ' सम्पूरणं जगते लोग एक-न-एक दिन
लिये यद्यपि पिण्डोदक-क्रियाका विधान नहीं है | मरनेवाले हैं '- यह विचारकर सदा अपने सच्चे
तथापि गङ्गाजीके जलमें उनकी हड्डियोंका डालना | सहायक धर्मका अनुष्ठान करना चाहिये । पतिव्रता
भी उनके लिये हितकारक ही है । उनके उद्देश्यसे | पलीको छोड़कर दूसरा कोई बन्धु बान्धव मरकर
दिया हुआ अन्न और जल आकाशमें लीन हो | भी मरे हुए मनुष्यके साथ नहीं जा. सकता;
जाता है । पतित प्रेतके प्रति महान् अनुग्रह करके | क्योंकि यमलोकका मार्ग सबके लिये अलग-
उसके लिये " नारायण-बलि' करनी चाहिये ।| अलग है । जीव कहीं भी क्वो न जाय, एकमात्र
इससे वह उस अनुग्रहका फल भोगता है। | धर्म ही उसके साथ जाता है। जो काम कल
१, " सस्कृतस्यासंस्कृतस्य स्वगो मोश्षो हरिस्मृतेः ।" ( अगति १५९।१)
"मरनेवाला मनुष्य मरनैके समय यदि भगवशामका उच्चारण या भगवत्स्मरण कर ले, तब तो उसे भगवत्प्राप्ति अवश्य होती है; परंतु
अदि उसके उद्देश्वसे भगयत्स्मएण किया जाय तो उससे भो उसको स्वर्ग और मोक्ष सुलभ हो सकते हैं।'
२. 'गक़तोये नरस्थाम्थि यावतावद दिवि स्थिति: । * (अग्नि० १५९।२)