मे० २ सू० ३० ४३
हे देवगण ! आप श्रेष्ठ बुद्धि वाले है तेजस्वो है तथा ट्रेषियों के छल को प्रकट करने वाले हैं । आप शत्रुनाशक
हैं; अत: शत्रुओं का संहार करे तथा हमारा वर्तमान और भविष्य सुखपय बनाये ॥२ ॥
२२९६. किम् नु वः कृणवापरापरेण किं सनेन वसव आप्येन ।
युयं नो मित्रावरुणादिते च स्वस्तिमिनदरापरुतो दधात ॥३॥
हे आश्रयदाता देवगण ! पूर्व मे किये गये अपने कर्मों हम आपका कि प्रकार आदर सत्कार करें, हे
मित्र, वरुण, अदिति, इन्द्र तथा मरुद्गणो ! आप सभी देवगण टपारा कल्याण करें ॥३ ॥
२२९७. हये देवा यूयमिदापयः स्थ ते पृक्त नाधमानाय महाम् ।
मा वो रथो मथ्यमवाद्ते भून्मा युष्मावत्स्वापिषु श्रमिष्म ॥४ ॥
हे देवगणो ! आप ही हमारे हितैषी सखा हैं; अतः हम आपकी स्तुति करते हैं, आप हमे सुखी बनायें ।
हमारे यज्ञ में आपका रथ तीव्र गति से आये । हम आपके समान सखा पाकर सदैव स्तुतिर्या करते रहें, धके
नहीं ॥४॥
२२९८. प्र व एको मिमय भूर्यागो यन्या पितेव कितवं शशास ।
आरे पाशा आरे अधानि देवा मा माधि पुत्रे विमिव ग्रभीष्ट ॥५ ॥
हे देवो ! आपने हमें पिता की भाँति उपदेश दिया है; अत: हमने अपने अनेकों पापों को नष्ट कर दिया है ।
हे देवो ! पाप तथा पाश हमसे दूर रहें । व्याध द्वारा पक्षी की तरह पुत्र के सामने (निर्दयतापूर्वक) हमें न पकड़ें ॥५ ॥
२२९९. अर्वाज्चो अद्या भवता यजत्रा आ वो हार्दिं भयमानो व्ययेयम्।
त्राध्वं नो देवा निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदो यजत्राः ॥६ ॥
हे पूज्य देवगणो ! आप आज हमारे सामने प्रकट हों, भयभीत होकर हम आपके हृदय के समान प्रिय आश्रय
को प्राप्त करें । ह पूज्य देवगणो ! कष्टदायी दुष्ट शत्रुओं से आपत्ति काल मे हमारी हर प्रकार से रक्षा करें ॥६ ॥
२३००. माहं मघोनो वरुण प्रियस्य भूरिदान आ विदं शूनमापेः ।
मा रायो राजन्सुयमादव स्थां बृहद्रदेम विदथे सुवीराः ।।७ ॥
हे वरुणदेव ! सबको सन्तुष्ट करने वाले एेशर्यशाती दानदाता की सुख-सपृदि से हम कभी ईर्ष्या न करें,
उन्हें बन्धुवत् मानें । हे वरुणदेव ! आवश्यक धन प्राप्त होने पर हम अहंकारी २ बनें, शरेष्ठ सन्तति सहित यज्ञ में
देवों की स्तुतियाँ करें ॥७ ॥
[सूक्त - ३० ]
[ऋषि- गृत्समद (आद्भिरस शौनहोत्र पश्चाद् ) भार्गव शौनक । देवता- इन्द्र , ६ - इद्धासोम, ८- पूर्वार्द्ध की
सरस्वती, ९- वृहस्पति, ११- मरुद्गण । छन्द - बिष्ट; ११-जगती ।]
२३०१. ऋतं देवाय कृण्वते सवित्र इनद्रायाहिष्ने न रमन्त आपः।
अहरहर्यात्यक्तुरपां कियात्या प्रथमः सर्ग आसाम् ॥१॥
जल प्रेरक, तेजस्वी तथा सर्व प्रेरक वृत्रहन्ता, इन्द्रदेव के निमित्त यज्ञादिकर्प कभी भी नहीं सुकते । जब से
यज्ञादि कर्म प्रचलित हुए, तब से याजकगण सदैव यज्ञ कर्म करते है ॥१ ॥
२३०२. यो वृत्राय सिनमत्राभरिष्यत्म तं जनित्री विदुष उवाच ।
पथो रदन्तीरनु जोषमस्मै दिवेदिवे धुनयो यन्तयर्थम् ॥२॥