यज्ञ की मुख्य धाराएँ
यज्ञ की मुख्य दो धारां कही जा सकतो है-- रूप में प्रयुक्त हुए । वेद में यज्ञ के विराट् स्वरूप के
(१) यज्ञ का वह सनातन रूप, जो अनादि काल से दर्शेन बहुत स्पष्टता से स्थान-स्थान पर होते ही रहते
अबाध गति से चल रहा है, उससे (क) विश्व की सृष्टि. हैं लौकिक सन्दर्भ में भी शास्त्रकारों ने यज्ञ को दिव्य
हुई और (ख) उसी के अन्तर्गत सृष्टि का
पोषण-परिवर्तन चक्र चल रहा है। (२) यज्ञ का
जौकिक रूप, जो संकल्पपूर्वक किया जाता है । उसके
अन्तर्गत (क) अग्निहोत्रादि विविध यजन-कर्मकाण्ड
आते हैं तथा (ख) लोकव्यवहार में जीवन यज्ञ के रूप
में जो अनिवार्यः प्रयुक्त होता है इस लौकिक यज्ञीय
प्रक्रिया का मूल सूत्र है--अपने अधिकार क्षेत्र कौ
श्रेष्ठतप वस्तु को देवकार्यों अथवा लोकमंगल के लिए
समर्पित कर देना । मीमांसा आदि शास्त्रों ने यज्ञ के
लौकिक कर्मकाण्ड को ही विशेष रूप से महत्त्व दिया
है, किन्तु वेद तो यज्ञ की सनातन, सृजनात्मक एवं
पोषणपरक धारा से ओतप्रोत हैं ।
पुरुष सूक्त में तो विराट् यज्ञ पुरुष से ही सारी
सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है । ऋक्. यजु, साम आदि
भी उसी यज्ञ क प्रकट हुए हैं--
5 ऋचः सामानि जज्ञि ।
छन्दा- सि जज्ञिरे तस्माद् यजुः तस्माटजायत ॥।
(ऋ ९०.९०.९. यजु० ३९.७)
अर्थात् "उस सर्वहुत यज्ञ से ऋचाओं एवं साप
आदि की उत्पत्ति हुई । उसी से छन्द आदि तथा "यजुः'
भी उत्पन्न हुए ।' यह सर्वहुत यज्ञ जैसे-जैसे विकसित
होता है, बैसे-वैसे सृष्टि का विकास भी होता जाता है ।
पुरुष सूक्त के अनुसार जो हो चुका है (यद् भूतं)
तथा जो होने वाला है (यत् च भाव्यं) , वह सब यह
विराट् पुरुष ही है ( पुरुष एव इदं सवं ) । सृष्टि के
पोषण-संचालन क लिए भी उसी विराट् सत्ता का
यजन किया जाता है । वह विराट यज्ञ प्रकृति में चलता
(क्जु० ३१-१४)
जब देवगणों ने उस विराट् चेतना से यजन
किया, तो ( उस यज्ञ ये ) वसन्त ऋतु आज्य के रूप
में, प्रीष्म ऋतु ईंघन के रूप में तथा शरद् ऋतु हवि के
अर में किये गये श्रेष्ठ कर्म की संज्ञा दी है ।
वै श्रेष्ठ कर्म (श्रेष्ठतम कर्म ही यज्ञ है) उक्ति
से यह भाव स्पष्ट होता है ।
५६५ के अनुसार वेदाध्ययन-ज्ञानविस्तार
ब्रह्मयज्ञ है; तर्पण पितृयज्ञ है; होमादि कर्म देवयज्ञ हैं,
बलिवैश्वादि कर्म भूतयज्ञ हैं तथा अतिथि आदि को
तृप्त करना मनुष्य यज्ञ है ।
यज् धातु के अनुसार म न ९ उच्चतम
आदर्शों के लिए), 'संगतिकरण' प्रवृत्ति
के साथ) एवं दान (अपने अधिकार की प्रिय वस्तु को
समर्पित करना) यज्ञ है । इस दृष्टि से निर्धारित अथवा
स्वीकृत श्रेष्ठ कर्तव्यो को भी यज्ञ ही कहा जाता है ।
यह भाव विभिन ग्रन्थो में जगह-जगह बहुत स्पष्टता
से मिल जाते हैं; जैसे--
आरम्भयज्ञाः क्षत्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः ।
परिचारयज्ञाः शद्राश्च जपयज्ञा द्विजास्तथा ॥
( पहा० शा० ३६७.१२)
अर्थात् क्षत्रियों के लिए पराक्रम-उद्योग करना
यज्ञ है । होम आदि (अनादि साधनों से यजन) करना
वैश्यो का यज्ञ है । शूद्रो का यज्ञ श्रेष्ठ सेवा कार्य है
तथा ब्राह्मणों के लिए जप आदि (आत्म चेतना को
परमात्म चेतना से युक्त करने वाले) कर्म यज्ञ है ।
जहाँ अग्निहोत्रपरक यज्ञ की बात आती है, उसे
भी अग्नि में सामग्री डाल देने जैसी छोटी क्रिया तक
हो सीमित मही माना जा सकता | उसके साथ भी
प्रवृत्तियों के शोधन, पवविरण के सनन लन तथा श्रेष्ठ
सामाजिक परम्पराओं के विस्तार जैसे श्रेष्ठ लक्ष्य
जोड़कर रखे जाते हैं । यज्ञीय कर्मकाण्ड के साध श्रेष्ठ
भावनाओं, विचारणाओं एवं प्रेरणाप्रवाहों को जोड़कर
रखना अनिवार्य है। इन्हीं सब बातों की ओर ध्यान
आकर्षित करते हुए मीमांसा दर्शन के अष्टम पाद के
सूत्र ९, १०,११ में स्पष्ट कहा गया है कि यज्ञ केवल
धन का व्यय कर देने से ही सिद्ध नहीं होता, उसके
लिए तप आदि करना भी आवश्यक है ।