* “भविष्यपुराण'--एक परिचय * ७
सांसारिक दुःखोंकी निवृत्ति धी सूर्योपासनासे सद्यः होती है ।
प्रायः पुराणों पौव और वैष्णयपुराण ही अधिक प्राप्त होते हैं,
जिनमें शिव और विष्णुकी महिमाका विशेष वर्णन मिलता है,
पतु भगवान् सूर्यदेवकी महिमाका विस्तृत वर्णन इसी पुराणमें
उपलब्ध है। यहाँ भगवान् सूर्यनारायणको जगत्स्रष्टा,
जगत्पाल्क एवं जगत्सहास्क पूर्णक्रय्म परमात्माके रूपे
अ्तिप्तित किया गया है। सूर्यके महनीय स्वरूपके साथ-साथ
उनके परिवार, उनकी अद्भुत कथाओं तथा उनकी उपासना-
पद्धतिका वर्णन भी यहाँ उपलब्ध है। उनका प्रिय पुष्प क्या
है, उनकी पूजाबिधि क्या है, उनके आयुध--व्योमके लक्षण
तथा उनका माहात्य, सूर्य-नपस्कार और सूर्य-्रदक्षिणाकी
विधि और उसके फल, सूर्यको दीप-दानकी विधि और
महिमा, इसके साथ ही सौरधर्म एवं दीक्षाकी विधि आदिका
महत्त्वपूर्ण वर्णन हुआ है। इसके साथ ही सूर्यके विराट्
स्वरूपका वर्णन, द्वादश् मूर्तियोका वर्णन, सूर्यावतार तथा
भगवान् सूर्यकी रधयात्रा आदिका विशिष्ट प्रतिपादन हुआ दै ।
सूर्यकी उपासनामें ब्रतोंकी विस्तृत चर्चा मिलती है । सूर्यदेवकी
प्रिय तिथि है 'सप्तमी'। अतः विभिन्न फलश्रुतियोके साथ
सप्तमी तिथिके अनेक बतोंका और उनके उद्यापनोंका यहाँ
विस्तारसे वर्णन हुआ है। अनेक सौर तीथकि भी वर्णन मिलते
हैं। सूर्योपासनामें भावशुद्धिकी आवश्यकतापर विज्ेष बल
दिया गया है। यह इसकी मुख्य बात है।
इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, गणेश, कर्तिकेय तथा अग्नि
आदि देवॉका भी वर्णन आया है। विभिन्न तिथियों और
नक्षत्रोके अधिष्ठातृ-देवताओं तथा उनकी पूजाके फलका भी
यर्गन मिलता है। इसके साथ हो ब्राह्मपर्वमें ब्रह्मचारिधर्मका
गुरुजनोकी महिमाक्य वर्णन, उनको अभिवादन करनेकी विधि,
उपनयन, विवाह आदि संसस््कारोंका वर्णन, स्त्री-पुरुषोंके
सामुद्रिक शुभाशुभ-लक्षण, स्त्रियोंके कर्तव्य, धर्म, सदाचार
और उत्तम व्यवहारकी बातें, सी -पुरुषोकि पारस्परिक व्यवहार,
पशञ्चमहायज्ञॉका वर्णन, बलिवैश्वदेव, अतिथिसत्कार, श्राद्धोंकि
१-उतिहासफुाणानि
सायथ॑ प्रातस्तथा
विविध भेद, मातृ-पितृ-श्राद्ध आदि उपादेय विषयोपर
विशेषरूपसे विवेचन हुआ है। इस पर्वमें नागपश्षमी-अतकी
कथाका भी उल्लेख मिलता है, जिसके साथ नागोंकी उत्पत्ति,
सर्पोके लक्षण, स्वरूप और विभिन्न जातियाँ, सपेकि काटनेके
लक्षण, उनके विष्का वेग और उसकी चिकित्सा आदिका
विशिष्ट वर्णन यहाँ उपलब्ध है। इस पर्वकी विशेषता यह है
कि इसमें व्यक्तिके उत्तम आचरणको ही विद्ेष प्रमुखता दी
गयी है। कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान, वेदाध्यायी,
संस्कारी तथा उत्तम जातिका वयो न हो, यदि उसके आचरण
श्रेष्ठ, उत्तम नहीं है तो वह श्रेष्ठ पुरुष नहीं कहा जा सकता।
लोके श्रेन््ठ और उत्तम पुरुष वे ही हैं जो सदाचारी और
सत्पथगामी हैं।
भविष्यपुराणमें ब्राह्मपर्वके बाद मध्यमपर्वका प्रारम्भ होता
है। जिसमें सृष्टि तथा सात ऊर्ध्वं एवं सात पाताल स्परेकॉका
वर्णन हुआ है। जयेति्क्र तथा भूगोलके वर्णन भी मिलते है।
इस पर्वमें नरकगामी मनुष्योंके २६ दोष बताये गये हैं, जिन्हें
त्यागकर जुद्धतापूर्वक मनुष्यक्ो इस संसारमें रहना चाहिये।
पुराणेकि श्रवणकी विधि तथा पुराण-वाचककी महिमाका
वर्णन भी यहाँ प्राप्त होता है। पुणणोंको श्रद्धा-भक्तिपूर्वक
सुननेसे ब्रह्महत्या आदि अनेक पापोंसे मुक्ति मिलती है। जो
प्रातः, रात्रि तथा साये पवित्र होकर पुराणोंका श्रवण करता है,
उसपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न हो जाते है" । इस पर्वमें
इश्टापूर्तकर्मका निरूपण अत्यन्त समारोहके साथ किया गया
है। जो कर्म ज्ञानसाध्य है तथा निष्करमभायपूर्वक किये गये
कर्म और स्वाभाविक रूपसे अनुरागाभक्तिके रूपमें किये गये
हरिस्मरण आदि श्रेष्ठ कर्म अत्तवेंदी कर्मोकि अन्तर्गत आते हैं,
देवताकी स्थापना और उनकी पूजा, कुआँ, पोखर, ताल्प्रब,
उद्यान आदि लगकाना तथा गुरुजनोकी सेवा और उनको संतुष्ट
करना--ये सब बहिवेंदी (पूर्त) कर्म हैं। देवालयोकि
निर्माणकी विधि, देवताओंकी प्रतिमाओकि लक्षण और उनकी
श्रुत्वा भकतवा द्विजोत्तमा: । मुच्यते सर्वपापेध्यो अह्हत्यास्ते च यत् ॥
रौ सुनिर्भुला शृणोति यः।तस्प विरथा महा कुष्पते शद्धूरस्तथा॥
( सध्यमपर्ण १॥७॥ ३-४)