+ सुकृब मुनिके पूत्रोके पश्षीकी बोनिमें जन्य लेनेका कारण» /।
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पुनः उसे पूछा-- मुझे तुप्हारे लिये कैसे अहारकी | आदरके साथ कह्वा--'पिंताजी | आप जो कुछ घो
व्यवस्था करनी चाहिबे।' उन्होंने कहा-- ' मुने ! | कहेंगे, जित कार्यके लिये भी हमें आज्ञा देंगे, उसे
मनुष्यके मांससे मुझे विशेष प्री होती है।'
ऋषिने कहा--' अरे! कहाँ पनुष्यक्रा मांस
और कहाँ तुप्हारी व॒द्धावस्था। जान पड़ता है,
जीवको दूषितं भावनाओंका सर्वथा अन्त कभी
नष्टौ होता। अथवा सुझे यह सब कहनेकी क्या
आवश्बकता। जिसे देनेकी प्रतिज्ञा कर ली गयी,
उसे सदा देना ही चाहिये; मे मनमें सदा ऐसा
ही भात रहता है ।
इन्द्रे यों कहते हुए अपनी प्रतिज्ञा पूरौ
करनेका निश्चय करके विंप्रवर सुकृपने हम सबको
शात्र हो ब्रुल्लावा और हमारे गुणोंकी बारंजार
प्रशंसा करते हुए कहा-- पुत्रो ! यदि तुमलोगोके
विचारसे पिता परम गुरु और घूणनीय हो तो
निष्काट भावसे मेरे वचदका पालन करो
* यताबदेद तिप्रनय ब्राहाणत्व॑
प्रचश्षते । वातत प्तगजत्यग्च स्दस्त्वप्रिपालरग॥
हमारे द्वारा पूर्ण किया छुआ हो समझ्िये।'
ऋषि बोलें--ठड़ पक्षी धूख प्याससे पीड़ित
होकर मेरौ शरणमें आया है। त्रुमलोग शोप्र ही
| प्रेसा करी, जिससे तुम्हारे शरीरके मांससे ५५५५९
इसकी तृसि और तुम्हारे रक्ते इसकी प्यास
, बुझ जाय।
यह सुनकर हमें बड़ी ज्यथा हुई। दम्य
शरीरम कम्प और मनपें भय छा गना, हम सहसा
बोल उठे--' इसमें तो बड़ा क हैं, बड़ा कष तै ।
यह काम हमसे नहाँ हो तकता। कोई भी
समझदार मनुष्व दूसरेके शरीरके लिंये अपने
शरीरका नाश अथवा वध कैसे कर सकता है।
अतः इमलोग यह काम नहीं करेंगे ।' हमारी ऐसी
बातें सुनकर जे मुनि क्रोधसे जल उठे और अपनी
लाल लाल आँखोंसे हमें दगध करते हुए से पुनः
इस प्रकार बोले--अरे! मुझ्लसे इसके लिये
प्रतिज्ञा करके भो तुमलोग यह कार्य नहीं करना
चाहते; अतः मेरे शापसे दःध होकर तुमल्लोग
पक्षियेंक्री योनिमें जन्म लोगे।" हमसे या कहकर
उन्होंने शास्त्रके अनुसार अपनी अन्त्येष्ट-क्रिया
कौ--और्ध्वदैहिक संस्कारकी विधि पूर्ण की।
इसके बाद वे उस पक्षीसे बोले-- खगश्रेष्ठ] ञव
तुम निश्चिन्त होकर मुझे भक्षण करों। सैंगे अपना
यह शरीर तुम्हें आहारके रूपे समर्पित कर दिया
है। पक्षिएज! जबतकः अपने सत्यका पूर्णरूपसे
पालन होता रहे, यहीं द्राह्मणका ज्राह्मगत्त् कहलाता
हूँ। ब्राक्मण दक्षिगायुक्त वों अथवा जन्य क्रमोंकि
अनुष्ठानसे भी वह महान् पुण्य नहीं प्राप्त कर
सकते, जो उन्हें रात्यक्री रक्षा करनेसे प्राप्त
तोत्ता है।*
(आग ३। ४5-४८ )