२९.३ यजुर्वेद संहिता
१५८९. आस यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुहटोन व्रतेन । अत्ति सोमेन समया विपृक्त5
आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि ॥१४॥
हे अर्वन् ! अपने गुप्त वरतो (जो प्रकट नहीं है, ऐसी विशेषताओं ) के कारण आप यम हैं, आदित्य हैं, त्रित
(तीनों लोकों अथवा तीनों आयामों ) में संव्याप्त हैं। सोम (पोषक प्रवाह) के साथ आप एकरूप हैं । द्युलोक में
स्थित आपके तीन बन्धन (ऋक्, यजु, सामरूपः) कहे गये रै ॥१४ ॥
(विज्ञान का सर्वमान्य नियम है कि किसी पिण्ड को स्थिर करने के लिए तीन दिशाओं से संतुलित शक्ति चाहिए। इस
सिद्धात को 'इक्वलीब्रियम ऑफ श्री फोर्सेज (तीन शक्तियो का संतुलन) एवं ट्रायेंगिल आफ फोर्सेज (शक्ति त्रिकोण). कहते
: हैं। संघवत: ऋषि अपनो सूक्ष्य दृष्टि से अन्तरिश्च ये भी कही सिद्धांत क्रियाखित होता देखते हैं ।]
१५९०. त्रीणि त 5 आहूर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे। उतेव मे
वरुणश्छन्तसयर्वन् यत्रा त त 5 आहुः परमं जनित्रम् ॥१५ ॥
हे अर्वन् (चंचल प्रकृति वाले) ! आपका श्रेष्ठ उत्पादक सूर्य कहा गया है । दिव्यलोक पे, जल तथा अन्तरिक्ष
न आपके तीन-तीन बन्धन कहे गये है । आप वरुणरूप में हमारी प्रशंसा करते हैं ॥१५ ॥
१५९१. इपा ते वाजिन्नवपार्जनानीमा शफाना सनितुर्निधाना । अत्रा ते भद्रा रशनाऽ
अपश्यपृतस्य याऽ अभिरक्षन्ति गोपाः ॥१६ ॥
हे वाजिन् (बलशाली मेध) ! आपके मार्जन (सिचन) करने वाले साधनों को हप देखते है ¦ आपके खुरो
(धाराओं के आघात) से खुदे हुए यह स्थान देखते हैं । यहाँ आपके कल्याणकारी रज्जु (नियंत्रक सूत्र) हैं, जो रक्षा
करते वाले हैं, जो कि इस ऋत (सनातन सत्य-यज्ञ) की रक्षा करते है ॥१६ ॥
१५९२. आत्मानं ते मनसारादजानामवो दिवा पतयन्तं पतङ्खम्। शिरो अपश्यं पथिभिः
सुगेभिररेणुभिर्जेहमानं पतत्रि ॥९७ ॥
हे अश्च (तीव गति से संचार करने वाले वायुभूत हव्य) ! नीचे के स्थान से आकाश मार्ग द्वारा सूर्य की तरफ
जाते हुए आपकी आत्मा को हम विचारपर्वक जानते हैं । सरलतापूर्वक जाने योग्य, धूलिरहित मार्गों से जाते हुए
आपके नीचे की ओर आने वाले सिते (श्रेष्ठ भागों ) को भी हम देखते हैं ॥१७ ॥
१५९३. अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यं जिगीषमाणमिष 5 आ पदे गोः। यदा ते मन्तो अनु
भोगमानडादिद् ग्रसिष्ठ ऽ ओषधीरजीगः ॥१८ ॥!
हे अश्च (तीव गति से संचार करने वाते वायुभूत हव्य) ! आपके यज्ञ की कामना वाले श्रेष्ठ स्वरूप को हम
सूर्य मंडल मे विद्यमान देखते हैं । यजमान ने जिस समय उत्तम हवियो को आपके निमित समर्पित किया, उसके
बाद ही आपने हव्यरूप ओषधियों को ग्रहण किया ॥१८ ॥
१५९४. अनु त्वा रथो अनु मर्यो अर्वन्ननु गावोनु भगः कनीनाम्। अनु व्रातासस्तव
सख्यमीयुरनु देवा मधिरे वी ते ॥९९॥ हि =
हे अर्वन् (चंचल प्रकृतिवाते यज्ञाग्नि) ! रथ (मनोरथ) आपके अनुगामी है । आपके अनुगामी मनुष्य, कन्याओं
का सौभाग्य तथा गौएँ ह \ मनुष्य समुदाय ने आपकी मित्रता को प्राप्त किया तथा देवगणों ने आपके शौर्य का
वर्णन किया है ॥१९ ॥
१५९५. हिरण्यशूड्रोयो अस्य पादा मनोजवा5 अबर5 इन्द्र&ऊ आसीत्। देवाऽ इदस्य
हविरद्ममायन् यो अर्वन्तं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ॥२० ॥