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» अनन्त-तृतीया तथा रसकल्याणिनी तृतीया-ब्रत «
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और मालतीके फुष्पोंसे उमादेवीकी पूजा करनी चाहिये।
भाद्रपदसे लेकर श्रावण आदि बारह महीनोंमें क्रमशः गोमूत्र,
गोपय, दूध, दही, घी, कुझोदक, बिल्वपत्र, मदार-पुष्प,
गोभृ्गोदक, पञ्चगव्य और बेलका नैवेद्य अर्पण करे ।
प्रत्येक पक्षकी तृतीयामे ब्राह्मण-दम्पतिको निमन्निते कर
उनमें शिव-पार्वतीकी भावना कर भोजन कराये तथा वस्त्र,
माला, चन्दन आदिसे उनकी पूजा करे। पुरुषको दो पीताम्बर
तथा समीक पीली साड़ियाँ प्रदान करे । फिर ब्राह्मणी खीको
सौभाग्याष्टक-पदार्थं तथा ब्राह्मणको फल और सुवर्णनिर्मिति
कमल देकर इस प्रकार प्रार्थना करे--
यथा न देवि देवेस्त्वौ परित्यज्य गच्छति ।
तथा मां सम्परित्यज्य पतिर्नान्यत्र गच्छतु ॥
(उ्षर्व २६। ३०)
"देवि ! जिस प्रकार देवाधिदेव भगवान् महादेव आपको
छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाते, उसी प्रकार मेरे भी पतिदेव
मुझे छोड़कर कहीं न जावै ।'
पुनः कुमुदा, विमल, अनन्ता, भवानी, सुधा, शिवा,
ललिता, कमला, गौरी, सती, रम्भा और पार्वती--इन नामका
उच्चारण करके प्रार्थना करे कि आप क्रमशः भाद्रपद आदि
मासोमें प्रसन्न हों।
ब्रतकी समाप्निमें सुवर्णनर्मित कमलसहित शब्या-दान
करे और चौबीस अथवा यारह द्विज-दम्पतियोंकी पूजा करे।
प्रत्येक मासमे ्राह्मण-दम्पतियोंकी पूजा विधिपूर्वक करे ।
अपने पूज्य गुष्देक्की भी पूजा करे ।
जो इस अनन्त तृतीया-त्रतका विधिपूर्वकं पालन करता
है, बह सौ कल्पोंसे भी अधिक समयतक रिवल्मेकपें
प्रतिष्ठित ह्येता है। निर्धन पुरुष भी यदि तीन कौतक उपवास
कर पुष्प और मन्त्र आदिके द्वारा इस ब्रतका अनुष्ठान करता
है तो उसे भी यही फल प्राप्त होता है। सधवा खी, विधवा
अथवा कुमारी जो कोई भी इस त्तका पालन करती है, वह
भी गौरीकी कृपसे उस फलको प्राप्त कर लेती है। जो इस
ब्रतके माहात्म्यको पढ़ता अथवा सुनता है, वह भी उत्तम
ल्तेकॉंको प्राप्त करता है।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! अब एक त्रत
और बता रहा हूँ, उसका नाम है--रसकल्याणिनी तृतीया ।
यह पाषोंका नाश करनेवाला है। यह त्रत माघ मासके शुक
पक्की तृतीयाको किया जाता है। उस दिन प्रातःकाल गो-दुग्ध
और तिल-मिश्रित जरसे खन करे । फिर देवीकी मूर्तिको मधु
और गज्नेके रससे स्नान कराये तथा जाती-पुष्पों एवं कुंकुमसे
अर्चना करें। अनन्तर पहले दक्षिणाज़की पूजा करे तब
वामाङ्गकी । अज्भ-पूजा इस प्रकार करे--'छूलिताये नमः”
पिंडलियों और घुटनोंकी, 'ध्ियै नमः' कहकर उनूओंकी,
*प्रदालसायै नमः” कहकर कटि-प्रदेशकी, 'मदनायै नमः”
कहकर उदसकी, ' मदनवासिन्यै नमः” कहकर दोनों स्तनोंकी,
"कुमुदायै नमः' कहकर गरदनकी, “माधव्यै नमः" कहकर
भुजाओंकी तथा भुजाके अग्रभागकी, "कमत्कायै नमः"
कहकर उपस्थकी, 'रुद्वाण्ये नमः' कहकर भरू और लल्म्ाटकी,
*ज्लंकरायै नमः” कहकर पलकरकी, 'विश्ववासिन्ये नमः”
कहकर मुकुटकी, "कान्त्यै नमः' कहकर केशपाशकी,
*चक्रायधारिण्यै नमः' कहकर नेत्रोंकी, 'पुष्टण॑ नमः" कहकर
मुखकी, “डल्कण्ठिन्ये नमः" कहकर कण्टकी "अनन्तायै नमः
कहकर दोनों कंधोंकी, “रष्थायै नमः' कहकर वामबाहुकी,
*विज्ञोकायै नमः' कहकर दक्षिण याहुकी, 'मत्यथादित्यै
नमः' कहकर हृदयकी पूजा करे, फिर “पाटलाये नमः'
कहकर उन्हें बार-बार नमस्कार करे ।
इस प्रकार प्रार्था कर ब्राह्मण-दम्पतिकी गन्ध-
माल्यादिसे पूजा कर स्वर्णकमलसहित जलपूर्णं घट प्रदान
करे। इसी विधिसे प्रत्येक मासमे पूजन करे और माघ आदि
महीनोंमें क्रमशः लवण, गुड़, तैल, राई, मधु, पानक (एक
प्रकारका पेय पदार्थ या ताम्बूल), जीरा, दूध, दही, घी, शाक,
धनिया और शर्कराका त्याग करे। पूर्वकथित पदा्थौको
उन-उन मासमे नहीं खाना चाहिये। प्रत्येक मासमें त्रतकी
समाप्तिपर करवेके ऊपर सफेद चावल, गोक्षिया, मधु, पूरी,
चेवर (सेवई), मण्डक (पिष्टक), दूध, हाक, दही, छः
प्रकारक अन्न, भिंडी तथा शाकवर्तिक रखकर ब्राह्मणको दान
करना चाहिये ! माघ मासमे पूजाके अन्तमे "कुमुदा प्रीयताम्”
यह कहना चाहिये । इसी प्रकार फल्गुन आदि महीनोमें
"माधवी, गौरी, रम्भा, भद्रा, जया, दिया, उमा, शी, सती,
मङ्गला तथा रतिलालसा" का नाम केकर “प्रीयताम' ऐसा