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श्र

चतुर्वेद संहिता

विवादित प्रसंगों से मुक्ति

उक्त संदर्भो से स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञ में

हिसापरक प्रक्रियाएँ कभी प्रविष्ट हो गयी हों, यह बात

और है; अन्यथा वेद, यज्ञ में हिंसा के पक्षथर नहीं हैं ।

आश्वमेथिक यज्ञीय प्रक्रिया के अन्तर्गत कुछ मंत्रों के

जो हिंसापरक अथवा अश्लील अर्थ किये गये हैं. वे

वेद की मूल भावना के साथ मेल नहीं खाते, यह तथ्य

आगे कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जायेगा ।

अध्ययन-अन्वैषण से पता लगता है कि

अश्वमेध वास्तव में शुद्ध-सात्विक आध्यात्मिक

प्रयोग हौ है। शतपथ ब्राह्मण १३.३.१.४ के

अनुसार पहला अश्वमेध प्रयोग प्रजापति ने किया

था। अपनी कामना पूर्ति के लिए वे इच्छुक हुए ।

उन्होंने अश्वमेध देखा । उससे यजन करने से उनकी

कामनाएँ पूर्ण हुईं... ।

पूर्व पृष्ठो प्र स्पष्ट किया जा चुका है कि अश्व

का अर्थ है--- सर्वत्र संचरित होने पे सक्षम तथा 'मेघ'

का अर्थ 'मेघा' , संगम-संगतिकरण है । प्रजापति ने

सर्वत्र संचरित दिव्य मेधा को देखा, उसे सृष्टि में हो मा-

प्रविष्ट कराया, तो सृष्टि का क्रम चल पड़ा, प्रजापति

की कामना पूरी हई । वीर्यं वा अश्वः" के अनुसार

मनुष्य का अश्व है, उसे दिव्य मेधा से

संचालित करे से" “अश्वमेध' होता है । यह प्रयोग

जब विराद्‌ स्तर पर - राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है,

तब आदर्श राष्ट्र बनता है। इसीलिए राष्ट्र वा

अभ्वमेथ:' (राष्ट्र अश्वमेध है) कहा गया है । सूर्य वा

अश्वमेध:' "अश्वमेधः यच्चन्द्रमा:' के अनुसार सूर्य

एवं चन्द्र भी अश्वमेध हैं। आज के भौतिक विज्ञान ने

भी यह स्वीकार कर लिया है कि सूर्य एबं चद्धमा की

परिस्थितियों से मनुष्यों को मानसिकता तथा उसकी

क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है। उक्त आधारों पर

अश्वमेध मानवी पुरुषार्थ को दिव्य चेतना से संचालित

करने की एक सूक्ष्म बैज्ञानिक प्रक्रिया है। उसके

अन्तर्गत विविध यज्ञीय प्रयोग किये जाते हैं ।

“अभ्वमेध' की परम्परागत प्रक्रियाओं में

“सूचीवेध' प्रक्रिया को भी विवादास्पद माना जाता है ।

उसमें सोने, चाँदी, ताम्बे आदि की सलाइयों से रानियों

द्वारा अश्व के शरीर को वेधे जाने की क्रिया दर्शायी

गयी दै । महौधर भाष्य में २३ वें अध्याय के ३३वें

मंत्र के अन्तर्गत यह विवेचन दिया गया है; किन्तु

यजुर्वेद के उक्त मंत्र का सीधा अर्थ केवल इतना है कि

गायत्री, त्रिश्रपू.आदि छन्द तुम्हें सूचिकाओं द्वारा

शाक्ति पहुँचाएँ।

आर्य समाज की परम्परा में इस पत्र का अर्थ कुछ

इस प्रकार किया गया है- “ज़ो विद्वान्‌ गायत्री आदि

छन्दो के अर्थ को ठीक से बताकर मनुष्यों के अज्ञान

जनित भेदों को दूर करते हैं, वे सुई से सिलाई करने

वाले की तरह सबका कल्याण करते है ।'

महीधर भाष्य के आधार पर मृत अश्य के शरीर

को सलाइयों से छेद कर उसे शान्ति पहुँचाने की बात

विवेक ग्राह्म नही लगती । आर्य समाज पद्धति की उक्त

व्याख्या यज्ञीय कर्मकाण्ड से हटकर तो है ही, सुच

प्रयोग को बलातू दूसरी ओर खींचा जा रहा है, ऐसा

लगता है । इस भाषार्थ में उक्त मंत्र का स्पष्टीकरण इस

प्रकार दिया गया है--बड़े यज्ञ बड़े कुण्डो में होते थे ।

यज्ञ का नियम है कि समिधाएँ किनारे-किनारे लगायी

जाती हैं तथा आहूतियाँ बोच में समर्पित की जाती

हैं। उन आहतियों का एक पिण्ड सा बन जाता है ।

उसे तोड़ा तो नहीं जाता; किन्तु उसे अग्नि में पूरी

तरह पच अवश्य जाना चाहिए। इसके लिए उस

पिण्ड को सलाइयों से छेदा जाना उचित है । हवन की

गयी ओषधियों के धूप्र का लाभ पूरी तरह प्राप्त

करने के लिए रानियाँ उक्त पिण्ड को सलाइयों से छेदे

तथा गायत्री आदि वेदोक्त छन्दो से उस पिण्ड को

शमित करे, तो बात युक्ति संगत लगती है । उक्त मंत्र

में तो अश्व का नाम भी नहीं है, ब्राह्मण ग्रंथों ने उस

यज्ञ पिण्ड को "अश्च' कहा तो “यज्ञ' या 'अग्नि' को

अन्व की संज्ञा देना शास्त्र सम्मत ही है। "अग्निरेष

यदश्वः' (शत० बा० ६. ३. ३. २२) । सोऽग्निरश्ो

भूत्वा प्रथम: प्रजिगाय (गो० ब्रा० २.४. ११) । अश्चों

ह या 5 एष (अग्निः) भूत्वा देवेभ्यो यज्ञं वहति

(शत० ब्रा० १.४. १, ३०)

इसी प्रकार एक उदाहरण अश्लील प्रकरण का

देखें-- यजु० २३. २५ में "यज्ञ के ब्रह्मा के प्रति कहा

गया है " माता च ते पिता च ते 5 ग्रे वृक्षस्य क्रीडतः '"

इसका सीधा अर्थ होता है कि तुम्हारे माता और पिता

वृक्षाग्र पर चढ़कर क्रीड़ा कर रहे हैं महीधर भाष्य में

'वृक्षाग्र' का अर्थ काष्ट से बने पलंग के अग्रभाग पर

करके माता-पिता की काम क्रीड़ा का संकेत किया गया

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