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काण्ड -९ सूक्त - २५ १७

[ २४- श्वेतकुष्ठ नाशन सूक्त ]

[ ऋषि - ब्रह्मा । देवता - आसुरी वनस्पति । छन्द - अनुषटप, २ निचृत्‌ पथ्या पंक्ति । |

१०३. सुपर्णो जातः प्रथमस्तस्य त्वं पित्तमासिथ ।

तदासुरी युधा जिता रूपं चक्रे वनस्पतीन्‌ ॥९ ॥

हे ओषधे !सर्वप्रथम आप सुपर्ण (सूर्य या गरुड़) के पित्तरूप में थी । आसुरी (शक्तिशाली) सुपर्णं के साथ

संग्राम जीतकर उस पित्त को ओषधि का स्वरूप प्रदान किया । वही रूप नील आदि ओषधि में प्रविष्ट किया है ॥१

१०४. आसुरी चक्रे प्रथमेदं किलासभेषजमिदं किलासनाशनम्‌ ।

अनीनशत्‌ किलासं सरूपामकरत्‌ त्वचम्‌ ॥२ ॥

उक आसुरी माया ने नील आदि ओषधि को कुष्ट निवारक ओषधि के रूप मे विनिर्भित किया धा । यह

ओषधि कुष्ठ नष्ट करने वाली है । प्रयोग किये जाने पर इसने कुष्ठ रोग को विनष्ट किया । इसने दूषित त्वचा को

रोग शून्य त्वचा के समान रंग वाली कर दिया ॥२ ॥

१०५. सरूपा नाम ते माता सरूपो नाम ते पिता ।

सरूपकृत्‌ त्वपोषधे सा सरूपपिदं कृधि ॥३ ॥

हे ओषधे ! आपकी माता आपके समान वर्ण वाली है तथा आपके पिता भी आपके समान वर्ण वाले हैं और

आप भौ समान रूप करने वाली हो । इसलिए हे नील ओषधे ! आप इस कुष्ठ रोग से दूषित रंग को अपने समान

रंग - रूप वाला करें ॥३ ॥

१०६. श्यामा सरूपड्डरणी पृथिव्या अध्युद्धता । इदम्‌ घु प्र साथय पुना रूपाणि कल्पय

हे काले रंग वाली ओषधे ! आप समान रूप बनाने वाली हो । आसुरी माया ने आपको धरती के ऊपर पैदा

किया है । आप इस कुष्ठ रोग प्रस्त अंग को भली प्रकार रोगमुक्त करके पूर्ववत्‌ रंग-रूप वाला बस दें ॥४ ॥

[ २५- ज्वर नाशन सूक्त ]

[ ऋषि-भृग्वद्धिरा देक्ता-यक्षमनाशन अग्नि । छन्द -१ विश्रप्‌ , २-३ विराट्गर्भात्रिष्ट॒पू, ४ पुरोऽनुष्टप्‌ ब्िषटप्‌ । ]

१०७. यद्ग्निरापो अदहत्‌ प्रविश्य यत्राकृण्वन्‌ धर्मधृतो नमांसि ।

* तन्न त आहुः परमं जनित्रं स नः संविद्वान्‌ परि वृङ्ग्धि तक्मन्‌ ॥१॥

जहाँ पर धर्म का आचरण करने वाले सदाचारी मनुष्य नमन करते हैं, जहाँ प्रविष्ट होकर अग्निदेव, प्राण धारण

करने वाले जल तत्त्व को जलाते हैं, वहीं पर आपका (ज्वर का) वास्तविक जन्म स्थान है, ऐसा आपके वारे में

कहा जाता है । हे कष्टप्रदायक ज्वर ! यह सब जानकर आप हमें रोग मुक्त कर दें ॥६ ॥

१०८. यद्यचिर्यदि वासि शोचिः शकल्येषि यदि वा ते जनित्रम्‌ ।

हृडुर्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान्‌ परि वृङ्ग्ि तक्मन्‌ ॥२ ॥

हे जीवन को कष्टमय करने वाले ज्वर ! यदि आप दाहकता के गुण से सम्पन्न हैं तथा शरीर को संतापदेने

वाले हैं, यदि आपका जन्म लकड़ी के टुकड़ों की कामना करने वाले अग्निदेव से हुआ है, तो आप “हूडु' नाम वाले

है । हे पीलापन उत्पन्न करने वाले ज्वर ! आप अपने कारण अग्निदेव को जानते हुए हमें मुक्त कर दें ॥२ ॥

[हुडड| का अर्थ गति (नाड़ी गति) या कष्यन बढ़ाने काला अथवा चिन्ता उत्पन्न करने वाला माना जाता है ।]

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