कत्यन्समुंद्श्ये |] [ २२
पात्राणां पयसां नौव क्त्सानां च विशेषणम् |
ब्रह्मादिभिः पूर्वेमेवं दुग्धा चेयं वसक्धरा । १०६
द गभ्यंश्च प्रचेतोभ्यो मारिषायां प्रजापतेः ।
दक्षस्य कीर्त्यते जन्म समस्यांशेन धीमत्तः १०७
भूतभव्यभवेणत्वं महेंद्राणां च कीत्येते ।
मन्वादिका भविष्यति आख्यानं वहु भिव ताः १०८
वैवस्वतस्य च मनोः कीर्त्येते सगं विस्तरः ।
ब्रह्मादिकोश उत्पत्तिश्र ग्बादीनां च कीत्यँते ।। १०९
विनिष्कृष्य प्रजासर्गे चाक्षुषस्य मनोः. शुभे ।
दक्षस्य कीत्येते सर्गो ध्यानाद्वैवस्वतांतरे ॥ ९१०
नारदः कृतसंवाद्ये . दक्षपुत्रान्महा बलान् ।
नाशयामास शापाय. मानसो ब्राह्मण; सुतः १११
कतो. दक्षोऽसुजत्कन्यां वैरिणा नाम विश्रुताः ।
मरुत्प वाहे मरुतो चित्यां देव्यां च संभवः ।।११२
पात्रों का; दुग्धो का और वत्सो का विशेषण वताया' गया है । चूं में
ही ब्रह्मा आदि के द्वारा इस वसुन्धरा का दोहन किया गया था । १०६। देश
प्रचेताओं से मारिषा अण से समान धीमान् दक्ष के जन्मे का कौत्त॑न
किया जाता है '१०७। महेन्द्रो क भूतभव्य और शवेशत्व का कीत्त ने किया
जाता है | बहुत से अयानो से युक्तं मन्वादिक होंगे †१०८। वैवस्वतमनु
के सर्गे का विस्तार कहा जाता है और ब्रह्मादि कोशं और भगु मादि की
उत्पत्ति का वर्णन किया जाता है \१०६॥ विनिष्कर्षक करके चाक प मनु के
शुभ प्रजा के सगं में वेवस्वत के अन्तर में ध्यान से दक्ष के सगं कां वर्णनं
किया जाता है ।११०। ब्रह्माजी के मानस अर्थात् मन से सनुत्पन्न पुत्र क्षौ
नारद जी ने संम्बाद करके महान् वलवान् दक्ष के पुत्रों को शाप के लिए
विनाश युक्तं कर दिया: था ।१११। इसके अनन्तरं प्रजापति दक्ष ने कन्या्ओं
को समुर्पन्न किया था जो कि वैरी के द्वारा नाम विश्रुतं हुए थे। मरत् के
प्रवाह में मरुत देवी दिति में समुत्पस्न हुआ/था । ११२
कीर्त्यन्ते मरुतां चात्र गणास्ते सप्तं सफ्तकाः ।