दारीर और छित्तमें जो अलूसताका भाव
आता है, उसीको यहाँ 'आल्स्थ' कहा गया
है। वात, पित्त और कफ--इन घातुओंकी
विषमतासे जो दोष उत्पन्न होते हैं, उन्हींको
"व्याधिः कहते हैं। कर्मदोषसे इन
व्याधियॉकी उत्पत्ति होती है। असावधानीके
कारण योगके स्राधनोंका न हो पाना
“प्रमाद' है। "यह है या नहीं है इस प्रकार
आक्रान्त हुए ज्ञानका नाम
“स्थान-संशब' है। मनका कहीं स्थिर न
होना ही अनवस्थितचित्तता (चित्तकी
अस्थिरता) है। योगपार्गमें भावरहित
(अनुरागशुन्य) जो मनकी चृत्ति है, उसीको
“अश्रद्धा' कहा गया है। विपरीतभावनासे
युक्त खुद्धिको 'भ्रान्ति' कहते हैं। "दुःख"
कहते हैं कष्टको, उसके तीन भेद हैं--
आध्यात्मिक, आधिभौतिक और
आधिदैविक | मनुरष्योकि चित्तका जो
अज्ञानजनित दुःख है, उसे आध्यात्पिक
दुःख समझना चाहिये । पूर्वकृत करमोंके
परिणामसे शारीरम जो रोग आदि उत्पन्न होते
हैं, उन्हें आधिभौतिक दुःख कहा गया है।
विद्युत्पात, अख्न-झसत्र और जिष आदिसे जो
यष्ट प्राप्त होता है, उसे आधिदेधिक दुःख
कहते हैं। इच्छापर आघात पहुँचनेसे मनमें
जो क्षोभ होता है, उसीका नाम है
"दौर्मनस्य' । विचित्र विषयमे जो सुखका
भ्रम है, वही 'विषयल्मेलुफ्ता' है।
थोगपरायण योगीके इन वि्रोके सान्त
हो जानेपर जो "दिव्य उपसर्ग' (विज्न) प्राप्त
होते हैं, चे सिद्धिके सूचक हैं। प्रतिभा,
श्रवण, वार्ता, दर्शन, आस्वाद और
केदना-ये छः प्रकारकी सिद्धियाँ ही
“उपसर्गः कहत्ठाती हैं, जो योगदाक्तिके
अपय्ययपे कारण होती हैं। जो पदार्थ
अत्यन्त सूक्ष्म हो, किसीकी ओटमें हो,
भूतकालमें रहा हो, बहुत दूर हो अश्वा
भ्रविष्यमें होनेवालां हो, उसका ठीक-ठीक
प्रतिभास (ज्ञान) हो जाना "प्रतिभाः
कहलाता है । सुननेका प्रयल्न न करनेपर भी
सम्पूर्ण काब्दोंका सुनायी देना 'श्रजण' कहा
गया है। समस्त देहधारियोंकी बातोंकों
समझ लेना "वार्ताः है। दिव्य पदार्थोका
चिना किसी प्रयत्रके दिखायी देना 'दर्दान'
कहा गया है, दिव्य रसोंका स्वाद प्राप्त होना
'आस्वाद' कहलाता है, अन्तःकरणके द्वारा
दिव्य स्पन्नोका तथा ब्रह्मलीकतकके गन्धादि
दिव्य घोगोंका अनुभव “केदना' नामसे
चिख्यात है ।
सिद्ध योगीके पास स्वदे ही रत्र
उपस्थित हो जाते हैं और यहूत-सी चस्तुरै
श्रदान करते हैं। सुखसे इच्छानुसार नाना
प्रकारकी मधुर वाणी निकलती है। सब
प्रकारके रसायन और दिव्य ओषधियाँ सिद्ध
हो जाती हैं। देवाड़नाएँ इस योगीको ग्रणाम
करके मनोवाच्छित वस्तुर्पै देती हैं।
योगसिद्धिके एक देशका भी साक्षात्कार हो
जाय तो मोक्षमें मन लग जाता है--वह पैंने
जैसे देखा या अनुभव किया है, उसी प्रकार
मोक्ष भी हो सकता है। कुद्ाता, स्थूलता,
'विक्षेषसकभ् में परिगणित दुःख और दौर्सतस्पकों सन्निहिते कर छिया गया है। योगसे "स्यान और
संदाय--ये दो घधरह-उधक् अच्राय' हैं और यहाँ “स्थान-सेझर्या नापसे एक ही अशराय माना गया है;
स्वर ही इस पुराणम ` अश्वद्धा' को भी एक अन्तराये; रूपमे गिना गया हैं।