पिरोये हुए रत्तको तरल कहते हैं। कर्णिका ओर | आते हैं। पुराने वस्त्रको पटच्चर कहते हैं। संख्यान
तालपत्र--ये कानके आभूषणके नाम हैं। लम्बन | और उत्तरीय--ये चादर या दुपट्टेके अर्थमें आते
और ललन्तिका गलेमें नीचेतक लटकनेवाले | हैं। फूल आदिसे बालोंका शृङ्गार करने या
हारको कहते हैं। मञ्जीर और नृपुर-ये पैरके | कपोल आदिपर पत्रभङ्गं आदि बनानेको रचना
आभूषण हैं। किङ्किणी और क्षुद्रघण्टिका घुँघुरूके | और परिस्पन्द कहते हैं। प्रत्येक उपचारकी
नाम हैं। दैर्घ्य, आयाम और आनाह -ये वस्त्र | पूर्णाका नाम आभोग है। ढक्कनदार पेटीको
आदिकी लंबाईके बोधक हैं। परिणाह और | समुद्गक और सम्पुटक कहते हैं। प्रतिग्राह और
विशालता--ये चौड़ाई (पनहा या अर्ज) के अर्थमें | पतद्ग्रह -ये पीकदानके नाम हैं॥ १--२९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाएराणमें “कोषगते मनुष्य-वर्गका कणति” नामक
तीन सौ चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३६४
^^
तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय
ब्रह्मा-वर्ग
अग्निदेव कहते हैँ -- वंश, अन्ववाय, गोत्र, | पृषदाज्य है। परमान्न ओर पायस-ये खीरके
कुल, अभिजन ओर अन्वय-ये वंशके नाम है ।
मन्त्रकी व्याख्या करनेवाले ब्राह्मणको आचार्य
कहते है । जिसने यज्ञमें त्रतकी दीक्षा ग्रहण की
हो, वह आदेष्टा, यष्टा और यजमान कहलाता है।
समझ-बूझकर आरम्भ करनेका नाम उपक्रम है।
वाचक हैं। जो पशु यज्ञम अभिमन्त्रित करके मारा
गया हो, उसको उपाकृत कहते हैं। परम्पराक,
शमन और प्रोक्षण-ये शब्द यज्ञीय पशुका वध
करनेके अर्थमें आते हैं। पूजा, नमस्या, अपचिति,
सपर्यया, अर्चा ओर अर्हणा --ये समानार्थक शब्द
एक गुरुके यहाँ साथ-साथ विद्या पढ़नेवाले छात्र | है । वरिवस्या, शुश्रूषा, परिचर्या ओर उपासना--
परस्पर सतीर्थ्य और एकगुरु कहलाते हैँ । सभ्य, | ये सेवाके नाम हैं। नियम और ब्रत-ये एक-
सामाजिक, सभासद ओर सभास्तार-ये यज्ञके | दूसरेके पर्यायवाची शब्द हैँ । इनमें "व्रत" शब्द
सदस्योंके नाम हैँ । ऋत्विक् ओर याजक--ये यज्ञ | पुल्लिज्ञ और नपुंसकलिङ्ग - दोनों प्रयुक्त होता
करानेवाले ऋत्विजोकि वाचक हैं। यजुर्वेदके | है । उपवास आदिक रूपमें किये जानेवाले ब्रतका
ज्ञाता ऋत्विजूको अध्वर्यु, सामवेदके जाननेवालेको
उद्गाता और ऋग्वेदके ज्ञाताकों होता कहते हैँ ।
चषाल और यूपकटक--ये यज्ञीय स्तम्भपर लगाये
जानेवाले काठके छल्लेके नाम हैं। स्थण्डिल और
चत्वर--ये दोनों शब्द समान लिङ्ग और समान
अर्थके बोधक हैँ । खौलाये हुए दूधमें दही मिला
देनेसे जो हवनके योग्य वस्तु तैयार होती है, उसे
आमिक्षा कहते है । दही मिलाये हुए घीका नाम
नाम पुण्यक है। जिसका प्रथम या प्रधानरूपसे
विधान किया गया हो, उसे 'मुख्यकल्प' कहते हैं
और उसकी अपेक्षा अधम या अप्रधानरूपसे
जिसकी विधि हो, उसका नाम अनुकल्प है।
कल्पके अर्थमें विधि और क्रम--इन शब्दोंका
प्रयोग समझना चाहिये। वस्तुका पृथक्-पृथक्
ज्ञान (अथवा जड़-चेतन या द्रष्टा-दृश्यके पार्थक्यका
निश्चय) विवेक कहलाता है। (श्रावणीपूर्णिमा