आदिके दिन) संस्कारपूर्वक वेदका स्वाध्याय
आरम्भ करना उपकरण या उपाकर्म कहलाता है।
भिक्षु, परिव्राट्; कर्मन्द, पाराशरी तथा मस्करी -
संन्यासीके पर्यायवाची शब्द है । जिनकी वाणी
सदा सत्य होती है, वे ऋषि और सत्यवचा
कहलाते है । जिसने वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्यके
ब्रतको विधिवत् समाप्त कर लिया है, किंतु अभी
दूसरे आश्रमको स्वीकार नहीं किया है, उसको
स्नातक कहते ह । जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण इन्दिरयोपर
विजय प्राप्त कर ली है, वे 'यती' और “यति'
कहलाते हैं। शरीर-साध्य नित्यकर्मका नाम यम
है तथा जो कर्म अनित्य एवं कभी-कभी
आवश्यकतानुसार किये जानेयोग्य होता है, वह
(जप, उपवास आदि) नियम कहलाता है।
ब्रह्मभूय, ब्रह्मत्व और ब्रह्मसायुज्य -ये ब्रह्मभावकी
प्राप्तिके नाम हैं॥ १--११॥
इस प्रकार, आदि आण्तेव , महापुराणमें “कोशगतत ब्रह्मवर्यका वर्णन” नामक
तीन सौ पँसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३६५ #
)
तीन सौ छाछठवाँ अध्याय
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं--मूर्धाभिषिक्त, राजन्य
बाहुज, क्षत्रिय और विराट्-ये क्षत्रियके वाचक
हैं। जिस राजाके सामने सभी सामन्त-नेश
मस्तक झुकाते हैं, उसे अधीश्वर कहते है ।
जिसका समुद्रपर्यन्त समूची भूमिपर अधिकार हो,
उस सप्राट्का नाम चक्रवर्ती ओर सार्वभौम है
तथा दूसरे राजाओंको (जो छोटे-छोटे मण्डलोकि
शासक हैं, उन्हें) मण्डलेश्वर कहते हैं। मन्त्रके
तीन नाम हैं-मन्त्री, धीसचिव और अमात्य।
महामात्र और प्रधान--ये सामान्य ममन्त्रियोंके
वाचक हैं। व्यवहारके द्रष्टा अर्थात् मामले-
मुकदमेमें फैसला देनेवालेको प्राइविवाक और
अक्षदर्शक कहते हैं। सुवर्णकी रक्षा जिसके
अधिकारमें हो वह भौरिक और कनकाध्यक्ष
कहलाता है। अध्यक्ष और अधिकृत--ये अधिकारीके
बाचक हैं। इन दोनोंका समान लिङ्ग है। जिसे
उसका नाम अन्तर्वशिक' है। सौविदल्ल, कञ्चुकी,
स्थापत्य और सौविद-ये रनिवासकी रक्षामें
नियुक्त सिपाहियोंके नाम हैं। अन्तःपुरमें रहनेवाले
नपुंसकोंको षण्ढ और वर्षवर कहते हैं। सेवक,
अर्थी ओर अनुजीवी --ये सेवा करनेवालेके अर्थमें
आते हैँ । अपने राज्यकी सीमापर रहनेवाला राजा
शत्रु होता है ओर शत्रुकौ राज्य-सीमापर रहनेवाला
नरेश अपना मित्र होता है। शत्रु और मित्र
दोनोंकी राज्यसीमाओकि बाद जिसका राज्य हो,
वह (न शत्रु, न मित्र) उदासीनः होता है।
विजिगीषु राजाके पृष्ठभागमें रहनेवाले राजाको
पाष्णिग्राह कहते है । चर, स्पश और प्रणिधि-
ये गुप्तचरके नाम हैं। भविष्यकालको आयति
कहते है । तत्काल और तदात्व -ये वर्तमान
कालके वाचक हैं। भावी कर्मफलको उदर्कं
कहते हैँ । आग लगने या पानीकी बाढ़ आदिके
अन्तःपुरकी रक्षाका अधिकार सौंपा गया हो, | कारण होनेवाले भयको अदृष्टभय कहते है ।
१. " अनतार्वशिक 'के स्थानमें 'अन्तर्वेश्मिक' नाम भी प्रयुक्त होता है ।
२. रामोक्त नौठिके उपदेशानुस्वर चिजिगीषुके सम्मुखवर्तो पाँच राज्य क्रमकः शत्रु, मित्र, अरिमित्र, मित्रमित्र तथा अरिभित्र-धित्र होते
हैं; आगे भी ऐसा हौ क्रम है । दोनों फार्श्रगत राज्यॉमें क्रमशः मध्यम तथा उदासीन होते है ।