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अन् ८४ |]

+ दशम स्कन्ध +

८०३

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विषयोंमें भटकने लगता है। उस समय भी चित्तके

चक्करसे विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान

पाता कि आप इस जाग्रत्‌ संसारसे परे हैं॥ २५ ॥ प्रभो !

बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधनाके द्वारा

आपके उन चरणकमलोको हृदयमें धारण करते हैं, जो

समस्त पाप-राशिको नष्ट करनेवाले गङ्गाजलके भी

आश्रयस्थान हैं। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज

हमें उन्हींका दर्शन हुआ है। प्रभो ! हम आपके भक्त हैं,

आप हमपर अनुग्रह कीजिये; क्योकि आपके परम पदकी

प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनका लिङ्गशरीररूप

जीव-कोश आपकी उत्कृष्ट भक्तिके द्वारा नष्ट हो जाता

है॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--राजर्षे ! भगवान्‌की इस

प्रकार स्तुति करके और उनसे, गजा घृतराष्ट्से तथा

धर्मराज युधिष्टिरजीसे अनुमति लेकर उन लोगोने

अपने-अपने आश्रमपर जानेका विचार किया ॥ २७॥

परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जानेका विचार देखकर

उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण

पकड़कर बड़ी नम्नतासे निवेदन करने लगे ॥ २८ ॥

वसुदेवजीने कटहा--ऋषियो ! आपलोग

सर्वदेवस्वरूप है । मैं आपलोगोंको नमस्कार करता हं ।

आपलोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये । वह

यह कि जिन क्कि अनुष्टानसे कर्मों और

कर्मवासनाओंका आत्यन्तिकं नाश-- मोक्ष हो जाय,

उनका आप मुझे उपदेश कीजिये ॥ २९॥

नारदजीने कहा--ऋषियो ! यह कोई आश्र्यकी

यात नहीं है कि वसुदेवजौ श्रीकृष्णको अपना बालक

समझकर शुद्ध जिज्ञासाके भावसे अपने कल्याणक

साधन हमलोगोंसे पूछ रहे है ॥ ३० ॥ संसारम बहुत पास

रहना मनुष्योंके अनादरका कारण हुआ करता है । देखते

है, गङ्खातटपर रहनेवाला पुरुष गङ्गाजल छोड़कर अपनी बुद्धिमान्‌

शुद्धिके लिये दूसरे तीर्थमे जाता है ॥ ३१॥ श्रीकृष्णकी

अनुभूति समयके फेरसे होनेवाली जगत्‌की सृष्टि, स्थिति

और प्रलवसे मिटनेवाली नहीं है । वह स्वतः किसी दूसरे

निमित्तसे, गुणोंसे और किसीसे भी क्षीण नहीं

होती ॥ ३२ ॥ उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष

आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दुःखादि कर्मफल

तथा स्व आदि गुणेकि प्रवाहसे खष्डित नहीं है । वे

स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपनेकों अपनी ही

शक्तियों--प्राण आदिसे ढक लेते हैं, तब मूर्खलोग ऐसा

समझते हैं कि वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या ग्रहणके

द्वारा अपने नेत्रोंके ढक जानेपर सूर्यको ढका हुआ मान

लेते हैं॥ ३३ ॥

परीक्षित्‌ ! इसके बाद ऋषियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण,

बलरामजी और अन्यान्य राजाओंके सामने ही

यसुदेवजीको सम्बोधित करके कहा-- ॥ ३४ ॥ 'कमेकि

द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलॉका आत्यन्तिकं नाश

करनेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ आदिके द्वारा

समस्त यज्ञोके अधिपति भगवान्‌ विष्णुकी श्रद्धापूर्वक

आराधना करे ॥ ३५॥ त्रिकालदर्शी ज्ञानियोने शास्त्रदृष्टिसे

यही चित्तको शान्तिका उपाय, सुगम मोक्षसाधन और

चित्तमें आनन्दका उल्लास करनेवाला धर्म बतलाया

है॥ ३६॥ अपने न्यायार्जित धनसे श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम

भगवान्‌की आराधना करना ही द्विजाति ~~ ब्राह्मण, क्षत्रिय

और वैश्य गृहस्थके लिये परम कल्याणका मार्ग

है॥ ३७॥ वसुदेवजी ! विचारवान्‌ पुरुषको चाहिये कि

यज्ञ, दान आदिके द्वारा धनकी इच्छाको, गृहस्थोचित

भोगोंद्वारा स्त्री-पुत्र॒की इच्छाको और कालक्रमसे स्वर्गादि

भोग भी नष्ट हो जाते हैं--इस विचारसे लोकैषणाको

त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घरमें रहते हुए ही तीनों

प्रकारकी एषणाओं--इच्छओऑंका परित्याग करके

तपोवनका रस्ता लिया करते थे॥३८॥ समर्थ

वसुदेवजी ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--ये तीनों देवता,

ऋषि और पितरॉका ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके

ऋणोंसे छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और

सन्तानोत्पत्तिसे। इससे उऋण हुए बिना ही जो संसारका

त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है॥ ३९॥ परम

वसुदेवजी ! आप अबतक ऋषि और पितरोके

ऋणसे तो मुक्त हो चुके दै । अब यज्ञकि द्वारा देवताओंका

ऋण चुका दीजिये; और इस प्रकार सबसे उऋण होकर

गृहत्याग कीजिये, भगवानकी शरण हो जाइये ॥ ४० ॥

वसुदेवजी ! आपने अवश्य ही परम भक्तिसे जगदीश्वर

भगवान्‌की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनेकि पुत्र

हुए हैं॥ ४१॥

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