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* संक्षिप्त लिवपुराण
क्र
न, करू
सर्वव्यापक, सर्वदा उदित, सर्वज्ञ एवं नाना
सूपो निरन्तर ध्यान करने योग्य हैं। इस
ध्यानके दो प्रयोजन जानने चाहिये । पहला है
मोक्ष और दूसरा प्रयोजन है अणिमा आदि
सिद्धियोकी उपलब्धि । ध्याता, ध्यान, ध्येय
और ध्यान-प्रयोजन--इन चारोको अच्छी
तरह जानकर योययेत्ता पुरूष योगका
अभ्यास करे) जो ज्ञान और यैराग्वसे
तथा खदा उत्साह रखनेवाला है, ऐसा ही
पुरुष ध्याता कहा गया है अर्धान् वही ध्यान
करनेमें सफल हो सकता है!
साधकको चाहिये कि वह जपसे
श्रकनेपर फिर ध्यान करे और थ्यानसे थक
जानेपर पुनः जप करें। इस तरह जप और
ध्यानमें ते हुए पुरूषका योग जल्दी सिद्ध
महासागरके समान स्थिरभावसे स्थित रहता
है और ध्यानस्यरूपसे शुन्य-सा हो जाता है,
उसे “सखमाथि' कहते हैं। जो योगी थ्येयपें
चित्तको लगाकर सुस्थिरभावसे उसे देखता
है और युझी हुई आगके समान शान्ते रहता
है, बह "समाधिस्थ" कहलाता है। वह न
स्थानें रखा हुआ दीपक कभी हित्ता
है--निस्पद खना रहता
है,
होता है। बारह प्राणायामॉकी एक धारणा समाधिनिष्ठ शुद्ध चित्त योगी
होती है, यार्ह धारणाओंका ध्यान होता है. समाध्रिले कन्नी विचलित नहीं होता--
और बारह ध्यानकी एक समाधि कही गयी सुस्थिरभावसे स्थिर रहता है। इस प्रकार
है। समधिको योगका अन्तिम अङ्ग कहा उत्तम योगका अभ्यास करनेवाले योगीके
गया है। समाधिसे सर्वत्र ब्रुद्धिका प्रकाश सारे अन्तराय शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और
फैलता है। जिस ध्याने केवरू ध्येय हो सम्पूर्ण चिप्र भी धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।
अर्थरूपसे भासता है, ध्याता निश्चल (अध्याय ३७)
भै
योगमार्गके विघ्न, सिद्धि-सूचरक उपसर्ग तथा पृथ्वीसे लेकर बुद्धि-
तक्त्वपर्यन्त ऐश्वर्यगुणोंका वर्णन, शिव-शिवाके ध्यानकी महिमा
उपमन्यु कहते है-श्रीकृष्या ! आरम्य, दुःख, दौर्मनस्य और विषयल्लोलुपता--थे दस
तीक्ष्ण व्याधियाँ, प्रमाद, स्थान-संदाय, योगसाभ्नपे लगे पुस्षोंके लिये
अनयस्थितचित्तता, अश्रद्धा, भ्रात्ति-दर्शन, योगपार्गके विघ्न कै गये हैं। * योगियोंके
= ओोगदर्शन, रिद ३०जे सूतमे नो मपलभ वोगला अन्तताव बताया गया है ओर
३३ में सुत्रमें जौथ 'विक्षेससहभ्' ससक वित्र अथवा भतियन्धक कदे गये है। कि कहाँ शिवपुराणमें दस
प्रकारके अत्लण्य बताये पये है ¦ इनमें योगदर्शनिफथित 'उरछय्यधुणिरूल नो छोड़ दिया यश है और