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बताया गया है; इसल्ये योगी पुरुष योगके

ड्वारा पुण्यापुण्यका परित्याग कर दे।

फलकी कामनासे प्रेरित होकर कर्म करनेसे

ही मनुष्य बन्धने पड़ता है, केवलः कर्म

करनेमात्नसे नहीं; अतः कर्मके फलको त्याग

देना चाहिये। प्रिये पहले कर्मपय यज्ञद्धारा

बाहर मेरी पूजा करके फिर ज्ञानयोगमें तत्पर

हो साधक योगका अभ्यास करे । कर्म॑यज्ञसे

मेरे यथार्थ स्वरूपका बोध प्राप्त हो जानेपर

जीव योगयुक्त हो मेरे यजनसे विरत हो जाते

हैं। उस समय चे मिट्टी, पत्थर और सुवर्णमें

भी समभाव रखते हैं। जो मेरा क्त

नित्ययुक्त एवं एकाप्रचचित्त हो ज्ञानयोगमें

तत्पर रहता है, यह मुनियोमे श्रेष्ठ एवं योगी

होकर मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेता है । जो समाधि

बर्णाश्रमी पुरुष मनसे विरक्त नहीं हैं, वे मेरा

आश्रय के ज्ञान, चर्या ओर क्रिया--इन

तीनमें ही प्रवृत्त होनेके अधिकारी हैं, उन्तीके

अनुष्ठानकी योग्यता रखते हैं। मेरा पूजन दो

अ्रकारका है--बाह्म और आभ्यन्तर । इसी

तरह सन, वाणी और झरीर--ड्न प्रिविध

साथनोंके भेदसरे मेरा भजन तीन प्रकारका

माना गया है। तप, कर्प, जप, ध्यान और

ज्ञान--ये मेरे भजनके पाँच स्वरूप हैं; अतः

साधुपुरूष उसे पाँच प्रकारका भी कहते हैं।

भूर्ति आदिमें जो मेरा पूजन आदि होता है,

जिसे दूसरे लोग जान कते हैं, यह “जाहा'

पूजन या भजन कहा गया है तथा वही

भ्रजन-पूजन जब मनके द्वारा होनेसे केवल

अपने ही अनुभवका विषय होता है, तब

“आभ्यन्तर' कहलाता है। मुझमें लगा हुआ

चित्त ही 'पन' कहलाता है। सामान्यतः पन

मात्रको यहाँ मन नहीं कहां गया है। इसी

तरह जो याणी मेरे नामके जप और कीर्तनपें

लगी हुई है, वही 'वाणी' कहलाने योग्य है,

दूसरी नहीं तथा जो मेरे दारे बताये हुए

त्रिपुण्ड्‌ आदि चिद्धोसे अक्लित है और निरन्तर

मेरी सेबा-पूजामें लगा हभ है, वही दारीर

इारीर' है, दूसरा नहीं। मेरी पूजाको ही

कर्म' जानना चाहिये। बाहर जो यज्ञ आदि

किये जाते हैं, उन्हें 'कर्म' नहीं कहा गया है।

मेरे लिये शरीरकों सुखाना ही “लप' है,

कृच्छु-चान्द्रायण आदिका अनुष्ठान नहीं।

पञ्चाक्षर-मन्लकी आयुत्ति, प्रणयका

अभ्यास तथा रुद्राध्याय आदिका बारंबार

पाठ ही यहाँ 'जप' कहा गया है, वेदाध्ययन

आदि नहीं मेरे स्वरूपका चिच्तन-स्मरण ही

ध्यान" है। आत्मा आदिके लिये की हुई

नहीं। मेरे आगपोंके

भलीभाँति जानना ही 'ज्ञान' है, दूसरी किसी

सस्तुके अर्थकों समझना नहीं ।

देवि ! पूर्ववासनावश याष अथवा

आभ्यन्तर जिस पूजनमें पनका अनुराग हो,

उसीमें दृढ़ निष्ठा रखनी चाहिये।

पूजनसे आभ्यन्तर पूजन सौ गुना अधिक

शरेष्ठ है; क्योकि उसमे दोषोंका पिश्रण नहीं

होगा तश्चा प्रत्यक्ष दीखनेवाले दोषोंकी भी

वहाँ सम्भावना नहीं रहती है। भीतरकी

शुद्धिको ही शुद्धि समझनी चाहिये । बाहरी

शुदिको शुद्धि नहीं कहते है । जो आन्तरिक

शुद्धे रहित है, यह जाहरसे शुद्ध होनेपर भी

अदुद्ध ही है। देवि ! बाह्य और आभ्यन्तर

दोनों ही प्रकारका भजन भाव (अनुराग)

पूर्वक ही होना चाहिये, चिना भावके नहीं ।

भावबरहित भजन तो एकमात्र विप्रलम्भ

(छलना) का ही कारण होता है । चतो सदा

ही कृतकृत्य एवं पयित्र हूँ, मनुष्य मेरा क्या

ऋरेंगे ? उनके द्वारा किये गये ब्राह्म अधवा

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