७२४ क अग्निपुराण *
4 22 4247 22249 79242: 9 22222 2225254555555555555555475877779479: 99 23 ६.
कीर्तन "अतिशयालंकार ^ कहलाता है। यह | दिखाते हुए) अन्य किसी कारणकी उद्धावना की
“सम्भव' और 'असम्भव'के भेदसे दो प्रकारका | | जाय अथवा स्वाभाविकता स्वीकार कौ जाय
माना जाता है। जिसमें विशेष्यदर्शनके लिये | अर्थात् बिना किसी कारणके ही स्वाभाविक
गुण; जाति एबं क्रियादिकी विकलताका | रूपसे कार्यकी उत्पत्ति मानी जाय, उसे विभावना
प्रदर्शन -अनपेक्षताका प्रकाशन हो, उसको | कहते हैं। परस्पर असंगत पदार्थोंका जहाँ युक्तिके
“विशेषोक्ति" कहा जाता है। जिसमें प्रसिद्ध | द्वार ` विरोधपूर्वक ` संगतिकरण किया
हेतुकी व्यावृत्तिपूर्वक (अर्थात् उसका अभाव | जाय, वह “विरोधालंकार" होता है। जिसकी
अतदूपस्यान्यथाध्यवसानमहिशयार्थमुतपेक्चा ३ (का० सू० ४।३।९)
दण्ड़ौका लक्षण इस प्रकार है-
अन्यथैव स्थिता वृत्तिब्षेततस्पेतरस्थ वा। अन्यधोलेकष्यते यत्र तामु्श् विदुर्यथा ॥ (२। २२१)
यही लक्षण अग्निपुराणमें भी है। दण्डीने उसे ज्यो-का- त्वो ले लिया है । अन्तर केवल इतना ही है कि अस्तिपुराणमें " मन्यते"
क्रियाका प्रयोग है ओर काव्यादर्शे “उत्प्रेश्ष्यते' क्रियाका।
आचार्यं मम्मटने थोडे -से शब्दोंमें हौ उत्पेक्षाका सर्वसम्मत रूष रख दिया है । यथा-
*सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्थ समेव यत्।' (का० प्र १५।९२)
अर्थात् ~" प्रकृत ( चरण्यं उपमेय) -कौ सम (उपमान) -के साथ सम्भावना " उत्तरे ' कहलाती है ।''
१. यह अतिशय हौ आगे चलकर “अतिशयोक्ति ' के नामसे प्रसिद्ध हुआ है। अगिनिपुराणके इस सूक्ष्म लक्षणकों आचार्य भामहने
विशद करते हुए कहा है कि --किसो '' कारणवश लोकोत्तर अर्थका बोधक जो वचन है, उसे ' अतिशयोकि' अलंकार मानते हैं। वामनने
इसके असम्भव-पक्षको नहीं लिया है। वे सम्भाव्य धर्म तथा उसके उत्कर्षकी कल्पनाको हौ 'अतिशयोक्ति' मावते है (४।३। १०) ।
लोकसीमातौत होनेपर हो वस्तुधर्ममें उत्कर्षं सिद्ध होता है। आचार्य दण्डोने अग्निपुराणोक्त लश्चणके केवल भावकी ही नहीं, शब्दकी भी
छाया लौ है। यथा --
चिवक्षा या विशेषस्य लोकसौमातिवर्तिनो । असावतिशयोक्ति: स्थादलंकारोत्तमा वधा ॥ ( काव्यादर्श २। २१४)
आचार्य मम्मटके द्वारा ' अतिशयोक्ति 'का विकसित स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है । उपमानके ह्वा उपमेयका निगरण करके
जो कल्पित अभेद-कथनरूप अध्यवस्तान करना है, वह एक प्रकारकौ “अतिशयोक्ति ' है। प्रस्तुत अर्धका अन्यरूपसे वर्णन द्वितीय
प्रकारक, “यदि "के समानार्थक शब्दको लगकर कौ गयौ कल्पना तृतीय प्रकारकों और कार्य-कारणके पौर्वांपर्यका विपर्यय चतुर्थ
श्रकारकौ ' अतिशयोक्ति ' है। (का० प्र० १०। १००-१०१)
२. दण्डीके 'काण्यादर्श ' में अग्निपुएणकी हो शब्दाकलोपे 'विशेषोक्ति' लक्षित करयो गयो है। भामहने भी अग्निपुराणके हो भाव
तथा शब्दकी छाया ली है। यषा-
एकदेशस्य विगमे या गुणान्तरसंस्थिति: । विशेषप्रधनायासौ विशेषोक्तिमंता यथा ॥ (३।२३)
वामनेन भी ' एकगुणहानिकल्पतायां साम्यदाकं विशेषोक्ति:।'--इस सूत्रमें ऐसा हो भाव व्यक्त किया है। अर्वांचोन आलंकारिकॉने
“कारण प्राप्त होनेषर भी जो कार्यका न होगा बताया जाय, उसे 'विशेषोक्ति' कहा है।'' जैसा कि आचार्य मम्मटको कथन है--
*विशेषोक्तिरखण्डेषु करणेषु फलावचः ॥' (१०। १०८)
३. काव्यादर्शकार दण्डीने अग्निपुरानमें दिये गये लक्षणकी आलुपूर्वीको हौ अपने ग्रन्थमें उद्धत किया है। भामहतरे करणभूत क्रियाका
निषेध होनेपर भी उसके फलकी *उद्धावना ' को 'विभावना' माना है। इसी भावको वामत्रने भी आपने सूत्रमें अभिव्यक्त किया है। यथा--
*क्रियाप्रतिषेधे प्रसिद्धतत्फलब्यक्तिविंभावना ॥' ( काव्यालंकार, सू० ४।३। १३)
आचार्य मम्मटने अपनी कारिका उक्त सूत्रका हो भाव ग्रहण किया है--
"क्रियाः प्रतिषेधेऽपि फलव्यक्तिविभावता।'
"सरस्वतीकण्ठाभरण ' के रचयित राजा भोजने ' विभावना ' के अपने लक्षणमें अग्निपुशाणकी शब्दावलीको ही अविकलकूपसे ले लिया है ।
४. भामहने “विरोध ' का लक्षण इस प्रकार बताया है--'' विशेषता बतानेके लिये किसौ गुण या क्रियाके विरुद्ध अन्य क्रियाका वर्णन
हो, तते उसे विद्वान् विरोध ' कहते हैं "~
गुणस्य वा क्रियाया या विरुद्धान्यक्रियाभिधा | या विशेषाभिधानाय विरोधं तं विदुबुंधा: ॥ (३। २५)