आयन्त्यलण्ड-अवन्तीक्षेत्र-माह/त्य ] # उज्जयिनी पुरीके कनकश्टज्ञ आदि
कनकशक्षा क्यों हुआ † फिर उसका कुद्ास्पछी नाम कते
हुआ ! आगे चलकर अवन्ती नाम कते पड़ा ! पश्माकती
और उजयिनी नामोंका मी देतु श्या है ! यह सब्र बताये ।
सनत्कृमारजीने कहा--एक समय मदादेवजी तथा
ब्रक्माजी सुबर्णमय झिख्बरोंसे युक्त अद्भुत पुरीका दर्शन करनेके
लिये भूतलपर आये । वहां आकर उन्होंने सम्पूर्ण विश्वके
स्वामी भगवान् विष्णुरूपे नमस्कार किया । विष्णुरूपने
भी विधि और आदरके साथ सेवकॉसहित उन दोनोंका
स्वागत-सत्कार किया और पृछा--'मदेश्वर ! तथा ब्र्मा-
जी ! आप दोनों अपने अनुगामिवोषटेत देवलोकसे
प्रृथ्वीपर कैसे परे हैं !! यह सुनकर नषा और महादेय-
जी बोले--प्रभो ! जहौ आप विराजमान हैं; यहीं इम दोनोंफा
भी स्नेह है । आपके बिना हमें स्वग, एथ्यी अपवा पांतालमें
भी सुख नहीं है। भगवन् | आपने यह सुवर्णमय शिखर-
वाटी प्रिचित्र पुरी कब वसायी दै | जगदीश्वर ! आप धा एमे
भी खान दें ।!
यह सुनकर विभ्वरूपमय बिष्णुने प्रसप्चित्त होकर
कहा---मैं आप दोनोंकों अभीष्ट स्थान देता हूँ । प्रजापते !
इस पुरीके उत्तर भागमें आपका स्थान है ओर मदश्वर ! आपके
लिये दक्षिण भागम स्थान दिया गया है। अतः आप वहीं पारे |
आप दोनोंने इस पुरीफों सुवर्णमय शिश्बरवाली बलाया हैं।
इसछिये यह संसारम 'कनकश्ृद्धाः नामसे विख्यात होगी ।
इस प्रकार इस पुरीका प्रथम नाम कनकश्तज्ञा बताया
शाता दै। यहाँ ब्रह्मा, पिप्णु और महादेबजी तीनों रहकर
प्रसणताका अनुभय करते ६ और अपने भक्तोकों समस्त
मनोवास्छित कर देते ई ।
भ्यास ! अब इस पुरीके कुशस्थली नाम होनेका कारण
बताया जाता है, उसे सुनो । एक समय सुष्टिकी रचना
करके ब्ह्माजीने मगवान् विष्णुका ध्यान किया । उनके ध्यान
करनेपर विश्वरूपधारी भगवान् पिष्णुने नक्षाजीते का~ 'प्क्षत्!
आपने मेरा उत्तम रीसिसे ध्वान किया है; इसलिये मैं आपके
पास आया हूँ । समस्त प्राणियोंकी रक्षाके छिये उचत हुए.
पुझ्कों देखिये ।› भेगवानूका यद वचन सुनकर ब्रह्माजी सहसा
उठकर सड दो गये और अनन्यचिचसे सामने खड़े हुए, भी हरि-
का पूजन करते हुए. उन्हें नमस्कार किया । तस्पश्चात् बक्नाजीने
इस प्रकार कट] - - ष्देवदेव ! जगन्नाथ | इस ज़गतूकी सृष्टि तो
मैंने कर दी ६, परं आपके कृपापूर्ण सहयोगके बिना
एसका स्थिर रहना असम्भव है । आप ही इस संसारके शास्ता
नाम पढ़नेका कारण # ७रदे
एवं पालक हैं। अतः आप ही इसको अपने अनुशासनमें रकल ।
यश्च, नाग, राक्षस, देवता, दानय, गन्धव --ये परस्पर एक-
दूसेरेकों मारते ६। इन सबकी रक्षा करनेमें केबछ आप ही
समर्थ हैं। आप सबमें प्रवेश करनेवाले और सर्वत्र व्यापक हैः
इसीहिये मुनीथरोंने आपको “विष्णु! कदा है| आपने ही
अपनेमें इस सम्पूर्ण विश्वकों बसाया दै, इसलिये आप “वासुदेव”
कहलाते ६ । समस्त संसार आपका अनुगामी दै, आप विभ
हैं; धम्पूर्ण जगतुके राजा हैं | अलिल विश्व आपके लिये
सेनाके सहंश है; इसीछिये आप “विश्वसेना कट्दे गये हैं।
इस चराचर जगत्कों अपनी ओर आकृष्ट करनेके कारण
आपको लोग श्थीकृष्णः कहते हैं । देव ! आपने तीनों
छोक़ोंकों जीत छया है, अतः आप जिष्णुः ई । आप ही
इस सम्पूर्ण जगतूके आदि राजा हो, आपका सिंशसन अद्वितीय
हो । आपके हांयमें दक्षिणायर्स शङ्ख दै, इस कारण आप
पुरुषोत्तम दें । आपके पास सदा सुदर्शन नामक चक्र
विद्यमान रहता दै, अतः आप ही चकी हैं। आपकी ध्वजा
गरुड़से चित है तथा सुवर्णकी-सी पोंखवाले गरुढ़ज़ी आपके
थाइन हैं । किरीटः प्क, भुजबन्द। कर्ण पु५य, केयूर, हार,
उत्तम सुवर्णसू्, विचित्र वख, उत्तरीष तंथा खख रंगकी
माव्थओंसे आप विभूषित दोश्ये । छक्ष्मी कमी आफ्का षाय
नहीं छोड़तीं। आपका पेयं अनन्त है । मुकुन्द | इस जगतमें
साथुपुरुषोंकी आपमें भक्ति दो । भप भक्तके ऊपर प्रसन्न
हेये ।
सनत्कुमारजी कद्धते हैँ--अ्रक्षाजीके इस प्रकार स्वति
करनेपर भगवान् विष्णु भन्न दो देवताजकि षीचमे शस
प्रकार ओके--“विरि् ! मुझे कोई एद मण्डल दिख्ाइये»
ओ आपे यक् न शो और जहाँ स्विस्तापूर्यक स्थित होकर
मैं जगत् ङी रक्षा कर खक |? तदनन्तर अक्षाजीने कुझकी
एक मूठी ली और एक अत्यन्त उन्नत खल भूमिपर बिछकर
भगवान्. विष्णुसे कहा--“देव ! आपके लिये यही पवित्र
विराजमान ये । इन कुशोपर ब्रेठनेके कारण आप
विषरभवा एज कुशेश्वर होगे ¦” अश्माजीके ऐसा ऋदनेपर
भगषान् छक्त्मीपति वहाँ कुशके आखनपर आसीन हुए ।
तदनन्तर विश्वविधाता अझा और भगवान् पुराण-पुरुषोत्तम
दोनोने उस पुरीका नाम कुशसपली रख दिया । उस पुरौ
रहकर सम्पूर्ण विश्वके पाठक) सर्वत्र व्यापक) पिश्वेश्व&
यिश्चसलष्ट, विश्वात्मा एवं सर्वविश्वनियन्ता भीमान् बिष्णुने