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७६६ + संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराण [

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किया। तत्पश्चात्‌ देवगण और मुनिसमुदाय उस | सभी यदुवंशी भी रुक्मिणीकी दृष्टि पड़नेसे

रातमें अपनी पत्लियोंके साथ वहाँ सुखपूर्वक रहे | अमूल्य रत्नोंसे परिपूर्ण एवं श्रोकृष्णद्वारा सुरक्षित

और प्रातःकाल होनेपर वे सभी श्रीकृष्णको | द्वारकाको प्रस्थान कर गये।

अनुमतिसे अपने-अपने स्थानको चले गये। तब (अध्याय १२४)

[

राधा और श्रीकृष्णका पुनः मिलाप, राधाके पूछनेपर श्रीकृष्णद्वारा अपना

तथा राधाका रहस्योद्घाटन

श्रीनारायण कहते है-- नारद ! इस प्रकार | श्रीकृष्णको आते देखा। उनका परम सौन्दर्यशाली

माधवन यादवो, देवों, मुनियों तथा अन्यान्य सुन्दर बालक-वेष था। वे मन्द-मन्द मुस्करा रहे

व्यक्तियों और देविर्योके साथ गणेश-पूजनका | थे। उनके शरीरकी कान्ति नवीन मेघके समान

कार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात्‌ वे अपने एक | श्याम थी; वे रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए

अंशसे रुकिमिणी आदि देवियोंके साथ रमणीय | थे; उनका सर्वाङ्ग चन्दनसे अनुलिप्त धा; रत्नोंके

ट्वारकापुरीको चले गये; किंतु स्वयं साक्षात्रूपसे | आभूषण उन्हें सुशोभित कर रहे थे; उनकी

सिद्धाश्रमे ही ठहर गये। वहाँ वे गोलोकवासी | शिखामें मयूर-पिच्छ शोभा दे रहा था; वे

गोप-सखार्ओं, नन्द तथा माता यशोदा-गोपीके | मालतीकौ मालासे विभूषित थे; उनका प्रसन्नमुख

साथ प्रेमपूर्वक वार्तालाप करके पुनः माता, पिता, | मन्द हास्यकौ छटा चिखेर रहा था; वे साक्षात्‌

गोकुलवासी गोपो तथा बन्धुवर्गोंसे नीतियुक्त | भक्तानुग्रहमूर्ति थे तथा मनोहर प्रफुल्ल क्रोडाकमल

यथोचित वचन बोले। लिये हुए थे; उनके एक हाथमे मुरली और दूसरे

श्रीभगवानने कहा-- पिताजी ! अब अपने | हाथमें सूप्रशस्त दर्पण शोभा पा रहा था। उन्हें

व्रजको लौट जाओ। परम श्रेष्ठ यशस्विनौ माता | देखकर राधा तुरंत ही गोपिर्योके साथ उठ खड़ी

यशोदे ! तुम भी उत्तम गोकुलको जाओ और वहां | हुईं और परम भक्तिपूर्वक उन परमेश्वरको सादर

आयुके शेष कालपर्यन्त भोगोंका उपभोग करो । | प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं ।

इतना कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण माता-पिताकौ | राधिका बोलीं -- नाथ ! तुम्हारे मुखचन्द्रको

आज्ञा ले राधिकाके स्थानको चले गये तथा | देखकर आज मेरा जन्म लेना सार्थक और

नन्दजौ गोकुलको प्रस्थित हुए। वहाँ पहुंचकर | जीवन धन्य हो गया तथा मेरे नेत्र और मन

श्रीकृष्णने मुस्कराती हुई सुन्दरी राधाको देखा । | परम प्रसन्न हो गये। पाँचों प्राण स्नेहाद्रं ओर

उनकौ तरुणता नित्य स्थिर रहनेवाली थी, जिससे | आत्मा हर्षविभोर हो गया; दुर्लभ बन्धुदर्शन

उनकी अवस्था द्वादश वर्षकौ थी। मोतिर्योका | दोनों (द्रष्टा ओर दृश्य) -के हर्षका कारण होता

हार उनको शोभा बढ़ा रहा था; वे रलनिर्मित | है । विरहाग्रिसे जली हुई मैं शोकसागरे डूब

ऊँचे आसनपर विराजमान थीं। उस समय | रही थी। तुमने अपनी पीयृषवर्षिणी दृष्टिसे मेरी

मुस्कराती हुई असंख्य गोपियां हाथोंमें बेंत लिये | ओर निहारकर मुझे भलीभांति अभिपिक्त कर

उन्हें घेरे हुए थीं। दिया; जिससे मेरा ताप जाता रहा। तुम्हारे साथ

उधर प्राणवल्लभा राधाने भी दूरसे ही |रहनेपर मैं शिवा, शिवप्रदा, शिवबीजा और

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