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चतुर्बाह---चार भुजाधारी, १७८ दुरावासः--
जिन्हे योगीजन भी बड़ी कठिनाईसे अपने
हृदयपन्दिरमें बसा हैं, ऐसे, १७९
डुरसदः--परम दुर्जय ॥ २२ ॥
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गः सर्घागुधविश्वास्दः।
अध्यत्मग्रोर्गनेक्यः सुतन्तुस्तन्तुजर्धनः ॥ २३ ॥
१८० दुर्लभः--भक्तिहीन
कटिनत्तासे प्राप्न होनेवाले, १८६१ दुर्गपः--
जिनके निकट पहुँचना किसीके लिये भी
कठिन है ऐसे, १८२ दुर्गः--पाप-तापसे रक्षा
करनेके लिये दुर्गरूप अथवा दु्लेंय,
१८२३ सर्वायुधविज्ञारटः--सम्पूर्ण अख्ोंके
प्रयोगकी कलाम कुझल, १८४ अध्यात्म-
योगनिलषः-- अध्यात्मयोगमें स्थित, ३८५
सुतरु:--सुन्दर विस्तृत जगत्-रूप तन्तुवाले,
१८६ क़तुवर्धन:--जगत-रूप तन्तुको
खढ़ानेत्राले ॥ २३ ॥
शुभ्वङ्गो लोकसारङ्गो जगदीशे जनाईदनः।
भस्मझुद्धिकरो.. गेररोजल्लो. शुरूचिप्रहः ॥ २४।
१८९
जगदीजझः--जगतके स्वामी, ६९० जनादंन:---
भक्तजनोंकी याचनाके आलम्बन, १९१ भस्म-
शुद्धिकर:---भस्पसे शुद्धिका सम्पादन करने-
याते, ६९२ मेरूः- सुपर पर्वतके समान
केन्ररूप, १९३ ओजस्वॉ--तेज और च्छते
सम्पन्न, १९४ शुद्धनिग्र्ः-- निर्मल
इारीरवात्सर ॥ २४ ॥
असाष्वः साधुसाध्यश्र भृत्यमकंटरूपघुन्
चिरदेतः पौराणो रिपुजीवहरो वल ॥ २५॥
१९५ असाध्यः --साधन- दूर
रहनेवाले लछोगोंके लिये अल्भ्य, १९६ साथु-
साध्य:--साथन- भरजनपराथण. सत्पुरुषोंके
लिये सुलभ, १९७ भृत्यमर्कटरूपघूकू--
श्रीरामके सेवक वानर हनुमानका रूप धारण
करनेवाले, १९८ हिरण्योता:---अभ्रिस्वरूप
अथवा सुवर्णमय चीर्यवाले, ६९९ पौराण:--
पुराणोंद्वारा प्रतिपादित, २०० रिपुजीयहरः--
ज्षत्रुओंके प्राण हर लेनेबाले, २०१ चल्ली--
बलझ्ाल्ी ॥ २५ ॥
पुरुषोंको महाहदी महागर्तः सिद्धवृन्ारवनदिः ।
ज्याप्तचार्म्वऐ व्याली महाभूटों महानिधिः।॥२६॥
२०२ महाहद:--परमानन्दके. महान
सरोघर, २०३ पहागतंः-- महान् आकादारूपः
२०४ सिद्धयुन्दारवन्दित:--सिद्धों और
देवताओंद्वारा वन्दित, २०५ व्याघ्रचर्माम्बरः--
व्याप्तचर्मको वस्थके समान धारण करनेवाले,
२०६ ब्याली--- सर्पोको आभूषणकी भाँति
धारण करनेवाखे, २०८७ महाभूतः- त्रिकालमें
भी कभी नष्ट न ह्येनेवाले पहाभूतस्वरूप,
२०८ गहानिधिः- सवके महान्
निवासस्थान ॥ २६ ॥
अमृताझो5मृतयपु:. णज्चजन्यः प्रभञ्जनः ।
पञ्चनिक्षतित्वस्थः पारिाटः पगसर्; ॥ २७ ॥
२०९ अभृतताङ्ः जिनकी आप्रा कभी
विफल न हो ऐसे अमोघसंकल्प, २६०
अमृतवपुः- जिनका कलेयर कभी नष्ट न हो
ऐसे--नित्यविग्रह, २११ पज्चनन्यः--
पाहछजन्य नामक शाङ्खस्वरूप,
२१२ प्रभल्ननः-- वायुस्वरूप अथवा
संहारकारी, २१३ पश्चविद्वत्तितत्वर्थ:--प्रकृति,
महत्तत्त (बुद्धि), अहंकार, चकु, श्रोत्र