ब्राह्मणण्ड-गक्षोत्तरसण्ड ] # त्यागी हुई रानी और राजकुमार की वैद्य एवं दिवयोगी द्वारा रक्षा # ५२५
है ! हसख्द्रजाछमें सथाई कहो है! शरद ऋतुके बांदलमें
चिरस्थायिता कश्ं है. और प्राणियोंके शरीरमें निवता
कहाँ है !७ अवतर तुम्हारे सौ कोटि अयुत ( दस इजार )
जन्म व्यतीत हो चुके हैं। अव तुष्टी बताओ, तुम किसझी-
किसझी पुत्री हो, फिसकी- फिसक़ी माता हो और क्िसकी-
किसकी पद्ी हो ! यह शरीर पाँच भूतोंका यना हुआ है।
यह त्यया, रक्त और आांससे षा हुआ दै । मेदा, मन्ना
और ददवर्योका समूह् है तथा मछ-मूत ओर कण
भाजन है। मोहमें पढ़ी हुई नारी ! यद जो दुष्ोरे पास
दूसरा शरीर ( दुदर पुत्र॒का धव ) पढ़ा हुआ दै, इस
अपने पको भी अपने शरीरसे निफला हुआ मल समझकर
व॒ शोरू नहीं करना चाहिये । फोई पण्डित भी अपनी
तपस्या, विद्या बुद्धि, मन्त्र, ओषधि तथा सरसायनसे सृत्युका
उाठज्नन नहीं कर सकता |। सुमुखि ! आज एक जीवकी
मृत्यु होती है; तो कर वूसरेह्री। अतः इस अनित्य शरीरके
हिये तुम्हें शोक नहीं करना चादिये। मन्यु सदा समीप दी
रहती है। फिर यता, देहधारियोद्रों स्या सुख है १ अतः
यदि तुम जन्म, बुदापा और सृस्युक्ों जीतना चाहती दो तो
सृत्युकों जीतनेवाले सवके ईश्वर भगवान् उमापतिकी
शरणमे जाओ । तमीतक मृत्युका पोर भय दै तथा जन्म और
जरावस्थाका भय दै, जक्तक कि जीव भगवान् शिवकरे
मन जब उसझी भरसे विरक्तं हो जता दै, उस समव उसे
भगवान् महेश्वरका ध्यान करना चाहिये । जो मनसे भगवान्
शिवके ध्यानरूपी रसामृता पान करता है, उस पुरुषकों
निषवरूपी मदिराको पीनेकी कृष्णा नहीं
जाता है; सत्र मनुध्यफा इस संसारम फिर जन्म नहीं
हेवा मद्रे ! यद मन भगवान् झिवके ध्यानका एक-
मात्र + है, इसे शोक और मोषटम न इकाभो | शियजीका
भजन करो |!
# क स्वे नियतं स्पैदंमिन्द्रल्यरे पच छत्पता ॥
कव नित्यता शरम्मेपे क्व शश्वस्व॑ पतवर ॥
( रक० ९० व्ण बयो ६० | ६४ )
¶ 7पसा विधया वुदथा मन्तौषधिर्सावने: ।
अ्रतियाति पटं सस्यं न कंथिवपि ष्ण्डितः ॥
(ष्ण पु ताज जद्नो+ १० । ७० )
इस प्रकार शिवयोगीने अनुनयपूर्थक जब रानीको
समझाया तय उसने उन्हींको गुर मानकर उनके चरण-
कमलम प्रणाम करके कहां--भगयन् ! जिसका एकमात्र
पुन्न मर गया हो) जिसे प्रिय बन््धुओंने त्याग दिया हो तथा जो
महान् योगसे अत्यन्त पीड़ित रहती शो, ऐसी मुझ अभागिनीके लिये
मृत्युके शिवा दूसरी कौन गति दै १ इसलिये मैं इस शिक्षुके
साथ ही प्राण स्वाग देना चाहती हूँ । सृत्युके समय जो
आपस्म दर्शन हो गया, मैं इतनेसे डी कृतार्थ हूँ ।
रानीकी यह बात सुनकर दयानिधान सिक्सोगी मेरे हुए
बालफके पास आये और शिवमन््से अभिमन्त्रित भर केकर
उसके मुंहमें डा दिया । विभूतिके पड़ते ही वह मरा हुआ
बालक प्राणयुक्त हो गवा । प्राण लौट आनेपर बालकने आँखें
खोट दीं । उखकी इन्द्रियो्मे पूर्यपत् शक्ति आ गयी और वद्
दूध पीनेड़ी इच्छासे रोने छगा । क नेषि आनन्दके ओषु
यही हुईं रानीने झपटफर याटककफो गोदमं उठा छिया और
उसे छातीसे चरिपकाकर वह अपूर्व आनन्दम इव गयी ।
तत्पश्रात् धिवयोगीने माता और बालकके विपेले धारयो युक्ते
श्रीयम भी मस्मका स्पर्श कराया । इससे उन दोनोंके शरीर
दिव्य शे गये । उन्होंने देवताओंकि समान कान्तिमान् स्वरूप
धारण कर लिया । तश्चत् ऋषभने रानीसे कट्टा--थेटी !
तुम दीर्घहालतक जीवित रहो | जक्तक इस संसारे जीवित
रोगी, तबतक शृद्धावस्या तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकेगी ।
खास्वी ! ठुग्दारा यह पुत्र लोकमें मद्रायु नामसे विख्यात
होगा और अपना राज्य प्राप्न कर छेणा तवत तुम दी
वैश्यराजके घरमें निवासत करो। जबतक कि तुम्हारा पुत्र पूर्ण
विद्ान् न हो जाव |?
इस प्रकार ऋषम योगीने भस्मकी दाति मो हुए
राजकुमास्कों जीवित करके अपने अमी स्थानफ्रों प्रस्थान
दिया । भद्वु उन्हीं वैश्यराजके घरमें क्रमशः बढ़ने लगा ।
वैद्यके भी 'सुनव” नामक एक पुत्र था, जो राजकुसारफा
शला हुआ | राजकुमार और वैश्यकुमार दोनों परस्पर बढ़ा
स्नेह रखते थे । वैश्यराजने विद्वान् आक्षणोंके द्वारा राजकुमार
और अपने पुत्रका भी संस्कार विस्तारपूर्वक करवाया ।
समयपर उपनयन-संस्कार हो जनिके पश्चात् दोनों बालकोंने
गुरूतेवाम तत्पर हों विनषपूर्वक सम्पूर्ण विचा्ओंद्म संग्रह
किया । तदनन्तर जब राजकुमारका सोलदवों कदं गा, तब
ये ही ऋषम योगी पुनः वैश्यराज्के घर आये । रानी और
राजकुमारने बढ़े इपके साथ उनको बार-बार प्रणाम करके