= विकोश्रप्संहिता *
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~ 0४ 4 ३ कक आओ
क्रमक्षः एक मास आदिका उल्लङ्घन हो गया
तो डेढ़ लाख जप करके उसका प्रायश्चित्त
करना चाहिये । इससे अधिक समेयतक
निश्रमका उल्तवङ्न हो जाय तो पुनः नये
सिरेसे गुरुसे नियम पहण करे । ऐसा करनेसे
दोषोंकी शन्ति होती है, अन्यथा वह रौरव
नरकमें जाता है । जो सकाम भावनासै युक्त
गृहस्थ ब्राह्मण है, उस्ीको धर्म तथा अर्थके
लिये यत्न करना चाहिये । मुमु ब्राह्मणको
लो सदा ज्ञानक ही अध्यास करना चाहिये !
श्र्मसे अर्थकी प्राप्ति होती है, अर्थसे भोग
होती है। कामनाओंका त्याग करनेवाले
पुरुषके अन्तःकरणकी शुद्धि होती है। उस
झुद्धिसे ज्ञानका उदय होता है, इसमें संशय
नहीं है।
सत्ययुग आदिग्रे तपको ही प्रशस्त कहा
गया है, किंतु कलियुगमें द्रव्यसाध्य धर्म
(दान आदि) अच्छा माना गया है।
सम्ययुरमे ध्यानसे, त्रेतामें तपस्थासे और
हरापरपें यज्ञ करनेसे ज्ञाउकी सिद्धि होती है:
परंतु कलिसयुगमें प्रतिमा ( भगवद्विपह) की
पूजासे ज्ञानलाभ होता है। अधर्मं हिसा
(दुःख) रूप है और धर्म सुखरूप है।
अश्वर्मसे मनुष्य दुःख पाता है और धर्मसे तरह
सुरख एवं अभ्युदधका भागी होता है।
दुराचारसे दुःख त्राप्त होता है और सदाचारसे
सुख । आत्तः भोग और मोक्षकी सिद्िके
लिये भर्पका उपार्जन करना चाहिये।
जिसके घरमें कम-से-कम चार पुष्य हैं,
ऐसे कुट्म्बी ब्राह्मणको जो सौ जर्षके सवयि
जीविका (जीवन-निर्वाहकी सामग्री) देता
है, उसके लिये वह दान ब्रह्मलककी प्राप्ति
करानेवाला ड्ोता है। एक सहल्र चाद्भायण
ज्रतका अनुष्ठान ब्रह्मलोकदायक माना गया
है। जो क्षत्रिय एक सहस्र कुदुम्बको
जीविकः और आवास देता हैं, उसका वह
कर्म इन्हस्जेककी प्राप्ति करानेबात्म होता है ।
दस हजार कुटुष्बोको दिया हू आश्रय-
उपार्जितं दान ब्रह्मलोक प्रदान करता है । दाता पुरुष
जिस देवेताको सामने रखकर दान करता है
ता है! घर्मके अर्थात् वह दानके द्वारा जिस देवताको प्रसन्न
करना चाहता है, उसीका स्णेक उसे श्राप्त
होता है---यह वात येद्येत्ता पुरूष अच्छी तरह
जानते हैं। श्ननहीन पुरुष सदा तपस्थाका
उपार्जन करें; क्योंकि तपस्या और
तीर्थसेवनसे अक्षय सुख पाकर मनुष्य
उसका उपभोग करता है।
अब मैं न्यायतः भनक उपार्जनकी विधि
बता रहा हूँ। ब्राह्मणको चाहिये कि वह सदा
सावधान रहकर बिशुद्ध प्रतिग्रह (दान-
अहण) तथा याजन (यज्ञ कराने) आदिमे
धनका अर्जन करे । वह इसके लिये कहीं
दीनता य दिखाये ओर न अत्यन्त क्लेद़ादायक
कर्म ही करे। क्षत्रिष घनका
उपार्जन करे और वैश्य कृषि एव गोरक्षासे ।
ज्यायोपार्जित अनका दान करनेसे दाताकों
ज्ञानकी सिद्धि प्राप्त होती है। ज्ञानसिदिद्धारा
सब पुरुषोंक्ों गुरुकृपा--मोक्षसिद्धि सुलभ
होती हैं। मोक्षसे स्वरूपकी सिन्ि
(ब्रह्मसूपसे स्थिति) आप्र होती है, जिससे