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सेवामें रहनेवाले पार्षदोंकी पूजा करे। पूर्वके

दरवाजेपर गरुडकी, दक्षिणद्वारपर चक्रकी, उत्तरवाले

ट्वारपर गदाकी और ईशान तथा अग्निकोणमें शङ्ख

एवं धनुषकी स्थापना करे। भगवानूके बायें-दायें

दो तूणीर, बायें भागमें तलवार और चर्म (ढाल),

दाहिने भागमें लक्ष्मी ओर वाम भागमें पुष्टि

देवीकी स्थापना करे। भगवान्‌के सामने वनमाला,

श्रीवत्स और कौस्तुभको स्थापित करें। मण्डलके

बाहर दिक्‍्पालोंकी स्थापना करे। मण्डलके भीतर | व्यूहोंके

और बाहर स्थापित किये हुए सभी देवताओंकी

उनके नाम-मन्त्रोंसे पूजा करे। सबके अन्ते

भगवान्‌ विष्णुका पूजन करना चाहिये॥ १५--१७॥

अद्गौसहित पृथक्‌-पृथक्‌ बीज-मन्त्रोंसे और

सभी बीज-मन्त्रोंको एक साथ पढ़कर भी भगवान्‌का

अर्चन करे। मन्त्र-जप करके भगवान्‌की परिक्रमा

करे और स्तुतिके पश्चात्‌ अर््य-समर्पण कर

हृदयमें भगवानूकौ स्थापना कर ले। फिर यह

ध्यान करे कि ' परब्रह्म भगवान्‌ विष्णु मैं ही हूँ!

(--इस प्रकार अभेदभावसे चिन्तन करके पूजन

करना चाहिये) । भगवानूका आवाहन करते समय

आगच्छ ' (भगवन्‌! आदये ।) इस प्रकार पढ़ना

चाहिये और विसर्जनके समय ' क्षमस्व" (हमारी

चरुटिर्योको क्षमा कीजियेगा।)-एेसी योजना करनी

चाहिये ॥ १८-१९॥

इस प्रकार अष्टाक्षरं आदि मन्त्रोंसे पूजा करके

मनुष्य मोक्षका भागी होता है। यह भगवानूके

एक विग्रहका पूजन बताया गया। अब नौ

पूजनकी विधि सुनो॥२०॥

दोनों अँगूठों और तर्जनी आदियमें वासुदेव,

बलभद्र आदिका न्यास करे। इसके बाद शरीरमें

अर्थात्‌ सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य

अङ्ग, जानु ओर चरण आदि अङ्गोमें न्यास करे।

फिर मध्यमे एवं पूर्व आदि दिशाओंमें पूजन करे ।

इस प्रकार एक पीठपर एक व्यूहके क्रमसे पूर्ववत्‌

नौ व्यूहोंके लिये नौ पीठोंकी स्थापना करे।

नौ कमले नौ मूर्तियोंके द्वारा पूर्ववत्‌ नौ व्यूहोंका

पूजन करे। कमलके मध्यभागमें जो भगवान्‌का

स्थान है, उसमें वासुदेवकी पूजा करे ॥ २१--२३॥

इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमें “सामान्य पूजा- विषयक वर्णन” नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हआ ॥ २३॥

(०८

चौबीसवाँ अध्याय

कुण्ड-निर्माण एवं अग्नि-स्थापन-सम्बन्धी कार्य आदिका वर्णन

नारदजी कहते हैं-- महर्षियो अब मैं अग्नि- | बाह्य दिशाकी ओर रहना चाहिये । मेखलाओंकी

सम्बन्धी कार्यका वर्णन करूँगा, जिससे मनुष्य | अधिकतम ऊँचाई बारह अङ्गुलक रखे, अर्थात्‌

सम्पूर्णं मनोवाञ्छित वस्तुओंका भागी होता है । | भीतरकी ओरसे पहली मेखलाकौ ऊँचाई बारह

चौबीस अङ्गुलक चौकोर भूमिको सूतसे नापकर | अङ्गुल रहनी चाहिये । (उसके बाह्मभागमे दूसरी

चह बना दे। फिर उस क्षेत्रको सब ओरसे | मेखलाकी ऊँचाई आठ अङ्गुलक और उसके भी

बराबर खोदे। दो अङ्गुल भूमि चारों ओर | बाह्मभागमें तीसरी मेखलाकी ऊँचाई चार अङ्गुलकी

छोडकर खोदे हुए कुण्डकी मेखला बनावे । | रहनी चाहिये ।) इसकी चौड़ाई क्रमशः आठ, दो

मेखलाएँ तीन होती हैं, जो “ सत्त्व, रज और तम' | ओर चार अङ्गुलकी होती दै ॥ १--३ ॥*

नामसे कही गयी हैँ । उनका मुख पूर्व, अर्थात्‌ | योनि सुन्दर बनायी जाय । उसकी लंबाई दस

शारदातिलकमें उद्धृत वस्टिसंहिताके वचनानुसार पहली मेखला चौड़ी होनी चाहिये और चार अङ्गुल ऊँची,

दूसरी आठ अङ्गुल चौड़ी और चार अम्भुल ऊँची, फिर तीसरी चार-चार अब्भुल तथो ऊँची रहनी चाहिये। वधा-

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