कस्याणकी इच्छा रखनेबाले पुरुषोकों सदा भगवात् शिवकरी
सेवा करनी चाद्ये । महाशन | प्रथम तो यह आनन्दकानन
अपेक्षा अधिक पवित्र है और वहाँ भी मेरा सान्निध्य होना
उससे भी अधिक पुण्यमय है । इसी अनुमानसे तुम प॑श्चनद-
तीर्थकी महिमा सव तीर्थो अधिक उत्तम जानो । पञ्चनदके
हो जाता हे ।
गयान् पिष्णुके मुखे यह पचन सुनकर महामुनि
अप्लिविन्दुने शीविन्दुमाधवके अरणोंमें प्रणाम करके पुनः
पूछा--“मगवन् ! काशीमें आपके जितने स्वरूप ह, उनका
बर्णन कीजिये ।?
भगवान् जिष्णुद्वारा अपने आदिकेशव प्रभृति खरूपोंका वर्णन तथा अग्निविन्दुकी भुक्ति
श्रीविस्दुमाधबजी ब्ोले--अग्निविन्दों ! पहले तो
पादोदफतीर्षमे मैं आदिकेशबके नामसे निवास करता ह,
ऐसा जानो । पादोदकतीर्थसे दक्षिणमें जो श्वेवद्वीप नामक
परम महान् तीर्ष है, वदं मैं हानकेशवके नामसे रइकर
मनुष्योंकों शान प्रदान श्रता हूँ । ता्व॑तीरयमे मैं ही
ताकवकेशवके नामसे प्रसिद्ध हूँ । व्ही नारदतीषमे मैं
नारदकेशब कहलाता हूँ । वहीं प्रह्मदतीर्थ भी है, जहाँ मैं
प्रह्दकेशवके नामसे प्रसिद्ध हूँ । भक्त पुरुषोंकों बां मेरे
स्वरूपकी मलीमोंति आगराधना करनी चाशिये। अम्परीषतीर्थमें
मेरा नाम आदित्यकेशव है। दक्तात्रेयेश्वरसे दक्षिण मेरा नाम
आदिगदांधर है। यहीं भा्गधती्थमे मैं भगुकेशबके नामसे
विख्यात हूँ । बामन नामक मङ्गलक्री महातीर्थे मैं बामन-
केशव हूँ। नसनारायणतीर्थमं मैं नर-नारायणस्वरूप हूँ ।
यज्वाराह नामक तीर्थमें मेरा नाम यज्वा है। विदारनारखिंद
मामवाछे तीर्थे मैं विदारनारखिंह नामसे ही सेवन करने योग्य
हूँ । गोपीगोचिन्द नामक तीर्थमें मैं गोपीगोविन्द नामसे
ही प्रसिद्ध हूँ । लक्ष्मीदृसिंद नामवाके पावन तीर्थमें मैं
रक्ष्मीद॒र्तिह हूँ । पापहारी शेषतीर्यमें मैं शेषमाघ हूँ ।
शज्ञमाधवतीर्थमें मेरा नाम शङ्खमाधव है । दयप्रीष महातीर्थमे
हयप्रीयकेशव नामते मेरी प्रसिद्धि है। हृद्धिकालेश्वस्से पश्चिम
मैं मीष्मकेशय नामसे प्रसिद हूँ । रोते उत्तर भागमें
मेरा नाम निर्वाणकेखब है । तिपुरसुन्दरी देवीसे दक्षिण मागमे
ओ त्रि्ुवनकेशव नामसे मेरी पूजा करेगा, बह फिर कभी गर्भमें
नहीं आवेगा । शानवापीके पूर्वभागमें मै शानमाधवके नामसे
प्रसिद्ध हूँ । वि्ठतम्ी देवीके समीप मै प्वेतमाधवके नामे
खित हूँ । दशाश्रमेघसे उत्तरमे स्थित मुझ प्रयागमाघवका
दर्शन करके मनुष्य सब्र पापोंसे मुक्त हो जाता है |
इस प्रकार जब भगवान् विग्दुमाधव अभ्निविस्तु मुनिकों
कधी स्थित अपने विभिन्न स्वरूपोंफा परिचय देते
हुए मादात्म्य-कथा सुना रहे ये, उसी समय उन्हे गरुड़जी
दिखायी दिये | गछड़ने भगवानकों प्रणाम करके प्रसल्नतापूर्वक
मददियजीके शुभागमनकी खूचना दी ।
अगयानने पूछा--महादेवजी कहाँ हैं !
गरुड़ थोले--जिसकी ध्वजापर महान् वृषभका चि
शोभा पाता है तथा मिसके रक्षमप ध्वजी प्रभा श्व पृष्यी
और आकाशक़ों परिपूर्ण किये दे रही है, बह यह महादेबजीका
रथ आ रहा हे । उसका प्रत्यक्ष दर्शन कीजिये । तब भीहरिने
भगवान् ब्रिछोचनके वृषभ-ध्यजका दर्शन करके उसे दूरसे ही
प्रणाम किया और अग्निषिनदु मुनिसे कहा-्मुने | दुम
अपने दाहिने हासे इस सुदर्शनचक्रका स्पर्श कर लो।?
भगवान् शी ऐसी आशा होनेफर उन्होंने ज्यों-ही सुदर्शनका
कै दिया स्पोंह्ी औईर्कि मशन् अनुप्रहसे वे सुदर्शनः
गये ।
स्कन्दजी कहते हैं--अगस्त्य ! फिर अगिविन्दु मुनि
श्योतिःस्वरूप होकर भगवान् विन्दुमाधवकी सेवाके प्रभावसे
उनकी दिभ्य चिन्मय ज्योतित्ववरूपा कौरतुभमणिमें
मिझछकर एकीभूत हो गये । ऊजिन्दोंने विन्दुमाधवके
चरणारबिन्दोंमें अपने चित्तकों चम्नरीकक्ी भाति छगा रक्ला
है; ये भी अस्निविन्दुकी भोति निभ्रय ही भगवत्स्वरूपकों
प्राप्त शोते हैं। इसलिये सदा काशीमें निवास, श्रीविस्दुमाधवका
दर्शन ओर इख माहात्म्य-कथाका श्रयण करना चाहिये तथा ऐसा
करके छोकिक गतिपर बिजप पानी चाहिये । पञ्चनदकी उत्पत्ति-
कथा पुण्यमयी है। भगवान् बिस्दुमाधयकी कथा भी परम पप्ित्र
है और रांशीका निवास भी अतिशय पुण्यजनक है--ये तीनों
कात पुण्या्मार्बोको ही सुलभ हैं ।
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