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आ* ३३ ] * दशम स्कन्ध + ६५५

भमो के के जी औ है कै जी औ कै कै के औ औ कै मौ औ है कै जी जौ ममौ मिः ओ म मौ ओ नि मौ म तौ मौ मौ नि मौ ॐ औ मौ मौ मः म मौ ॐ की ही म ननि है औ के कै हे के

प्राप्त हो गया और वे भगवानके पास सशरीर जानेवाली गोषियोंके पहुँचनेसे पहले ही भगवान्‌के पास पहुँच गयीं। भगवान्‌ मिल गयीं। यह

शास्त्रक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि पाप-पुण्यके कारण ही बन्धन होता है और शुभाशुभका भोग होता है। शुभाशुभ कमोंके भोगसे जब पराप-पुष्य

दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब जीवको मुक्ति हो जाती है। यद्यपि गोपियाँ पाप-पुण्यसे रहित श्रीभगवान्‌की प्रेम-प्रतिम्रस्वरूपा थीं, तथापि लीलाके लिये

यह दिखाया गया है कि अपने प्रिवत्म औकृष्णके पास न जा सकस, उनके विरहानलसे उनको इतना महान्‌ सन्ताप हुआ कि उससे उनके सम्पूर्ण

अशुभका भोग हो गया, उनके समस्त पाप नष्ट हो गये। और प्रियतम भगवानके ध्यानसे उनके इतना आनन्द हुआ कि उससे उनके सारे पुण्योंका

फल मिल गया। इस प्रकार फप-पुण्योका पूर्णझपसे अभाव होनेसे उनकी मुक्ति हो गयी। चाहे किसी भी खाबसे हो--कामले, क्रोषसे,

लोभसे--जो भगवान्‌के मङ्गलमव श्रीविप्रहका चिन्तने करता है, उसके भावकी अपेक्षा > कस्के वस्तुशक्तिसे ही उसका कल्याण हो जाता है।

यह भगवान्‌के श्रीविग्रहकी विशेषता है। भावके द्वारा तो एक प्रस्तरमूर्ति भी फम कल्याणक दान कर सकती है, बिना भावके ही कल्वाणदान

भगवद्निप्रहका सहज दान है ¦

भगवान्‌ हैं बड़े लीलामय। जहाँ वे अखिल विश्वके विघाता ज्ह्मा-शिव आदिके भी वन्दनीय, निखिल जौवोके प्रत्यगात्मा हैं, वहीं वे

लीलानटवर गोपियोंकि इशारेपर नाचनेवाले भी हैं। उन्हीकी इच्छासे, उन्हींके प्रेमाद्ानसे, उत्हींके वैशी-निमशलणसे प्रेरित होकर गोपियाँ उनके पास

आयों; परंतु उन्होंने ऐसी भावभज्जी प्रकट को, ऐसा स्क बनाया, मानों उन्हे गोपिवोके आनेका कुछ पता ही न हो। शायद गोवियोंके मुँहसे थे

उनके हृदयको बात, प्रेमको बात सुतना चाहते हों। सम्भव है, वे विप्रलम्भके हारा उनके मिलत-भावको परिपुष्ट करना चाहते हों। बहुत करके

तो ऐसा मालूम होता है कि कर लोग इसे साधारण वात न समझ लें, इसलिये साधारण लोगोंके लिये उपदेश और गोपियोंका अधिकार भी उन्होंने

सबके सामने रख दिया । उन्होंने बतलाया--'गोपियों ! त्रजमे कोई विपति तो नहीं आयी, घोर राक्रिमें यहाँ आनेका कारण क्या है ? घरवाले दैवते

होंगे, अब यहाँ ठहरता नहीं चाहिये। व्क शोभा देख ली, अब अच्यों और छदो भौ ध्यान करों। धर्मके अनुकूल गोक्षके खुले हुए द्वार

अप्त सगे-सम्बन्धियोंकी मेत छोड़कर वनमें दर-दर भटकना स्किपोंके लिये अनुचित है। खौकों अपने पतिकौ ही सेवा करनी चाहिये, वह कैर

भरी क्यो न हो। वहो सनातन धर्म है। इसोके अनुसार तुन चलना चाहिये। मैं जानता हूँ कि तुम सब्र मुझसे प्रेम करती हो परेतु प्रेममें शारीरिक

सन्धि आवश्यक नहीं है। श्रवण, स्फर, दर्शन और ध्यानसे साप्रिध्यकी अपेक्षा अधिक प्रेम बढ़ता है। जाओ, तुम सकतन सदाचारका पालन

करो । इधर-उधर मनकों मत भटकते दो।'

श्रीकृष्णकी यह शिक्षा गोपियोंकि लिये नहीं, सामान्य नारी-जातिके लिये है। गोफियोंका अधिकार विशेष था और उसको प्रकर करतेके लिये

हो भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसे कचन कके थे। इन्हें सुनकर गोषियोंकी क्या दशा हुई और इसके उत्तमे उन्होंने औकृष्णसे क्या प्रार्चना की; वे ओकृष्णको

मनुष्य कहीं मानती, उसके पूर्णज्रह्म सनातन स्वरूपक! भलीभाँति जानती हैं और यह जानकर ही उनसे प्रेम करती हैं--इस वाका कितना सुन्दर

परिचय दिया; यह सब विषय मूलमें ही पाठ करनेयेग्य है। सचमुच जिनके इदयमे भगवान्‌के परमतत््वका वैसा अनुपम श्न और भगवान्‌के

प्रति वैसा महान्‌ अनन्य अनुराग है और सच्ाईके साथ जिनकी वाणीमें वैसे उद्गर हैं, वे हौ विशेष अधिकरत्वान्‌ हैं।

गोपियोंको प्रार्यनासे यह बात स्पष्ट है कि वे श्रीकष्णको अन्तर्यामी, योगेश्वर परमात्माके रूपयें पहचानती थीं और जैसे दूसरे लोग गुरु,

सखा या माता-पिताके रूपमें श्रीकष्णकी उपासना करते हैं, वैसे हौ वे पतिके रूपये श्रीकृष्णसे प्रेम करती थीं, जो कि शाखोमे मधुर

भावके--उज्ज्वल परम रसके कमते कहा गया है। जब ग्रेमके सभी भाव पूर्ण होते हैं और साधके स्वामि-सखादिके रूफमें भगवान्‌ मिलते

हैं, तब गोपियोति क्‍या अपराध किया था कि उनका यह उच्चतम धाव--जिमसमें शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य सब-के-सब अन्तभूत हैं और

जो सबसे उन्नत एवं सबका अन्तिम रूप है--त पूर्ण हो ? भगवान उनका भाव पूर्ण किवा और अपनेको असंख्य रूपमे प्रकर करके गोपियोकि

साथ क्रोडा को । उनके क्रोडाका स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है-- रते रमेशो व्रजसुन्दरीधिर्यथार्धक: स्वप्नतिविम्बविध्रम: ।' जैसे नन्‍्हा-सतरा शिशु

दर्पण अथवा जलम पड़े हुए अपने प्रतिबिम्बके स्वध खेलता है, वैसे ही रमेश भगवान्‌ और व्जसुष्दरियोने रमण किया। अर्थात्‌ सच्चिदानन्दघन

सर्वान्तर्यामी परेमरस स्वरूप, त्तैलारसमय फमात्मा भावान्‌ श्रीकृणने अपनी हादिनी-शक्तिरूपा आकद-चिमयरस-प्रतिभाविता अपनी ही

प्रतिमूर्तिसे उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्ब-स्वरूपा गोपिवोंसे आत्सक्रीडा की। पूर्णत्रह्य सनातन रसख्रूप रसराज रसिक-शेखर रसपस्त्राद्म

अखिलासामृतविप्रह भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस चिदानन्‍्ट-रसमयी दिव्य क्रीडाका नाम ही रास है। इसमें न कोई जड़ शरीर था, = प्राकृत अङ्ग सङ्ग

था, और न इसके सम्बन्धक प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था विदानन्दमय भगव्वन्‌क दिव्य विहार, जो दिव्य लीत्कधाममे। सर्वदा

होते रहनेपर भी कभी-कभी प्रकट होता है।

जियोग ही संयोगक्ा पोषक है, मान और मद हो भगवान्‌को लीलामें बाधक हैं। भगवान्‌कों दिव्य लीलामें मान और मद भी, जो कि दिव्य

है, इसलिये होते हैं कि उनसे लीके रस और भी पुष्टि हो। भगवान इच्छसे हो गोपियोमि लोलानुरूप मान और मदक सञ्चार हुआ और

भगवान्‌ अन्तर्धान हो गये । जिनके हृदयमें लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मानका संस्कार रोष है, वे भगवान्‌के सम्मुख रहनेके अधिकारी

नहीं। अथव वे धगवानका, पास रहनेपर भी, दर्शन नहीं कर सकते । परु गोपियाँ गोपियाँ थीं, उनसे जगते किसी प्राणीकी तिलमात्र भी तुलना

नहीं द ¦ भगवान वियोगमें गोपियोंकी क्या दशा हुई, इस शतको गसलीलाक प्रत्येक पाठक जानता है। गोपियोके शरौर-मन-प्राण, वे जो कुछ

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