इसके बाद इन दोनोंके आदिर “प्र' जोडकर
पुनरुछ्लेख करे प्रस्फुर प्रस्फुर ।' तत्पश्चात् ' कह ',
"वम" और “बन्ध'-इन तीनों पदोंको दो-दो
बार लिखे। फिर दो बार “'घातय' लिखकर
अन्तमें हुं फट् ' का उच्चारण करे। (सब जोड़नेपर
ऐसा बनता है--'ड्डीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर
घोरतरतनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम
चम बन्ध वन्ध घातय घातय हुँ फट् ।'- इक्यावन
अक्षरोंका मन्त्र है।) इस प्रकार ' अघोरास््र-मन्त्र'
होता है। (इसके विनियोग और न्यास आदिकी
विधि ' श्रीविद्यार्णव-तन्त्र ' के ३०वें श्वासमें द्रष्टव्य
है।) अब “शिव-गायत्री' बतायी जाती है।
"महेशाय विद्यहे। महादेवाय धीमहि। तनः शिवः
प्रचोदयात्।'--यह ' शिव-गायत्री ' (ही पूर्वाध्यायमें
कथित प्रासाद-मन्त्रका आठवाँ भेद 'शिव-रूप'
है।) सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु्ओंको सिद्ध करनेवाली
है॥ ४--७॥
यात्रामें तथा विजय आदिके कार्यमें पहले
गणकी पूजा करनी चाहिये; इससे ' श्री "की प्राप्ति
होती है। पहले चौकोर क्षेत्रकों सब ओरसे
बारह-बारह कोष्ठो विभाजित करें। [ऐसा
करनेसे एक सौ चौवालीस पदोंका चतुष्कोण
क्षेत्र बनेगा।] मध्यवर्ता चार पदोंमें त्रिकोणकी
रचना करके उसके बीचमें तीन दलोंसे युक्त
कमल लिखे। उसके पृष्ठभागमें पदिका और
वीथीके भागमें तीन दलवाला अश्वयुक्त कमल
बनावे। तदनन्तर वसुदेव -पुत्रो (वासुदेव, संकर्षण
और गद)-से, जो तीन दलवाले कमलोंसे
सुशोभित हैं, पादपट्टिकाका निर्माण करे। उसके
ऊपर भागमात्रके प्रमाणसे एक वेदीकी रचना
करे। पूर्वादि दिशाओंमें द्वार तथा कोणभागोंमें
उपद्वारकी रचना करे। इस प्रकार द्वारों तथा
उपद्वारॉंसे रचित मण्डल विध्ननाशक है। मध्यमें
जो कमल है, वह आरक्त वर्णका हो।
उसके बाहरके कमल भी वैसे ही हों। वीधी
शरेतवर्णकौ होनी चाहिये। द्वारोंका रंग अपने
इच्छानुसार रख सकते हैं। कर्णिका पीले रंगसे
रैगी जायगी तथा केसर भी पीले ही होंगे। यह
*विघ्नमर्द' नामक मण्डल है। इसके मध्यभागमें
गणपतिका पूजन करें। नामका आदि अक्षर
अनुस्वारसहित बोलकर आदिमं ' ओं' और अन्ते
“नमः ' जोड़ दे। (यथा--39 गं गणपतये
नमः ।' ) हस्वान्त बीजोंसे युक्त ईशान-तत्पुरुषादि
मन्त्रोंसे ब्रह्ममूर्तियोंका पूजन तथा दीर्घान्त बीजोंसे
हृदय, सिर आदि अङ्गौ न्यास करे। उपर्युक्त
मण्डलकी पूर्वदिशागत पङ्के गज, गजशीर्ष
(गजानन), गाङ्गेय, गणनायक, गगनग तथा
गोपति --इन नामोंका उल्लेख करे । इनमेंसे अन्तिम
दो नार्मोकौ तीन आवृत्तियाँ होगी । (इस प्रकार ये
दस नाम दस कोष्ठे लिखे जायँँगे और किनारेके
एक-एक कोष्ठ खाली रहेंगे, जो दक्षिण-उत्तरकी
नामावलीसे भरेंगे।) ॥ ८-१५॥
विचित्रांश, महाकाय, लप्बोष्ठ, लम्बकर्ण,
लम्बोदर, महाभाग, विकृत (विकर), पार्वती -
प्रिय, भयावह, भद्र, भगण और भयसुदन-ये
बारह नाम दक्षिण दिशाकी पड्डिमें लिखे । पश्चिममें
देवत्रास, महानाद, भासुर, विघ्नराज, गणाधिप,
उद्धटस्वन, उद्धटशुण्ड, महाशुण्ड, भीम, मन्मथ,
मधुसुदन तथा सुन्दर और भावपुष्ट-ये नाम
लिखे। फिर उत्तर दिशामें ब्रह्मेश्वर, ब्राह्म-मनोवृत्ति,
संलय, लय, नृत्यप्रिय, लोल, विकर्ण, वत्सल,
कृतान्त, कालदण्ड तथा कुम्भका पूर्वबत् उल्लेख
करके इन सबका यजन करे॥ १६--२० ॥
पूर्वोक्त मन्त्रका दस हजार जप और उसके
दशांशसे होम करे। शेष नाम-मन्त्रोंका दस-दस
बार जप करके उनके लिये एक-एक बार