ध्राक्मषलण्ड-अक्यात्त र-खतण्ड ]
#% दिवके षडक्षर पयं पश्चाक्षर भन्ञका माहात्म्य +
तस्स
शिवके पह़क्षर एवं पश्चाक्षर मन्त्रका माहात्म्य; राजा दाझ्माई तथा रानी कलावतीकी कथा
ज्योतिर्मा ब्रस्वरूगाय निर्मछज्ञानचक्षुषे ।
नमः छिवाय कान्ताय अक्षणे सिह्सूर्तये ॥
ध्ज्योतिभाप जिनका स्वरूप है; निर्मल ज्ञान ही जिनका
नेत्र है; जो लिद्नस्वरूप ब्रक्ष हं, उन परम शान्त कस्याणमय
भगवान् शिवकों नमस्कार है !!
श्पि बोल--सूतजी ! आपने सशेष भगवान् विष्णुके
उत्तम मादात्यस्न वर्णन क्रिया, जो समस्त पापका अपहरण
कसलेबाछा और परम पब्ित्र है | इसने भी उसे ध्यानपूर्वक
सुना ६ । अब ट्मलोग भिपुर्रविनाशक शिवजीके मराहात्य
और उनके मन्त्रोफ़ी मंद्रिमाड़ो सुनना चाहते ६।
सूनजीन कहा-मुनिवो ! मस्मघर्मा मनुष्योके हिये
इतना दी सचते उत्तम एवं धनातन श्रेय दे कि भगवान्
मंटशरकी कथाम अड्ारण भक्तिभावफा उदय हा* । वमल
पुर्यो, भेक सम्पूर्ण ताधनो और समस्त यश्ञोम जपयजञकों
ही सर्वोत्तम माना गया है† । जैसे सब देवताओंमे त्रिपुरारि
भगवान् राक्र ५8 दें; उसी प्रकार ख्य मन्बरोमे सिवदा
षटश्चर मन्त्र ५५ ३। उसीको प्रणति रदित द्ोनेपर
पश्चाक्षर मन भी फदते ई । वह जप $नेकल पुरुषोको
मोक्ष देनेबाला १ । सिद्धिकी श्न्छा रखनेयाकत सब श्रेष्ठ मुनि
इस मल्त्रफा सम्यग् रूपले सेवन करते ट । शिवजीके शुभ
पश्चाक्षर मन््तर्म त्वंश, परिपूर्ण, सब्चिदानस्दस्वरूप मवान्
शिव सदा रभते रहते ई । यह मन्त्रराज सम्पूर्ण उपनिषदो
आत्मा है | इसके जपते सवे पुनियोंने निरामय परअक्षझा
साक्षात्कार किया है | (नमः शिवाय" भन्प्रमै (नमः, पदक
अर्पनूत नमस्कारे द्वारा जीवभाव परमाःमा शियर्म मिलकर
तद्रूप हो जाता दे । अतः वद मन्न साक्षात् पर्र्षतवरूप
है । संशार.पन्धनमे बंधे हुए. ददधारियोके दितकी कामनासे
स्वयं भगयान् {वने “ॐ नमः शिषपाय' इस आदिमन्त्रफा
# धतागदेव मत्यौनां षरं भवः समातनम् ।
यदीश्वरद्धावा मे आता भक्तिदैतुको ॥
{ स्क० पु० आ० नक्षो> १ । ५)
सर्वफात्पि पृष्कात। सेवां भेयस्लाम्रति ।
7 क. त 3.)
( ^+ १५ न नक्तम १ | ५)
प्रतिपादन किया ६ । जिसके हृदये “5 नमः शिवाय
यह मन्त्र निवास करता दै, उसके लिये बहुत-से मन्त्र
तीर्थ, तप और यशेक़ी क्या आवश्यकता हैं॥ ! देदधारी
मनुष्य तभीतक दुःश्षोते भरें हुए इस भयङ्कर संसारमें
भठकते है, जस्तक कि वे एक बार भी इस पदक्षर मन्म
उच्चारण नहीं करते । यह पदर मन्म सम्पूर्ण शनो
निधि है । यह मोक्षमार्गक़ों प्रकाशित करनेवाला दौपक है।
अवियाके समुद्रकों सोखनेकत्य वडवानल है और महापातकों-
के जंगलको ज] डालनेवाला दायान है। अतः यह
पञ्वा्षर मन्त्र सच कुछ देनेवात्प माना गया दै । इते मोक्षकी
अभित्मपा रखनेवाले श्ली-समुदाय, शूद और वर्णेकर
भारण कर सकते हैं| इस मन्त्रके लिये दीक्षा, होम, संस्कार,
तदत, समफझुद्धि तथा गुस्भुखसे उपदेश आदिकी
आयश्यफता नहीं है । यह मन्त्र सदा पवित्र है |। मिषः
यह दो अक्षरका मन्त्र दी बढ़े-बढ़े पातक्षोंका नाश करनेमे
समर्थ है और उसमें नमः" पद जोढ़ दिया गवा, त्व तो
यह मोक्ष देनेयात्य हो जाता है। जो गुर निर्मल, शान्त,
खाधु स्वस्पभापी, काम-कोपसे रहित, सदाचारी और
जितेन्द्रिय हों। उनके द्वारा दयापूर्वड् दिया दुआ मन्व
शीघ्र ही दिद हो जता है। प्रयाग, पुष्कर, केदार,
सेलुपरथ, गोकर्ण और नैमिषारण्य ये सब शेष मनुष्योडों
शीष ही सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं |
मथुरापुरीमे दाशाई नामसे विख्यात एक रजा हो गये
हैं, जो यदुकुलमें भे४, बुद्धिमान, अत्यन्त उत्साहौ और
महान् बलसान् थे। वे श्लोके शता, नीतियुक्त बचन
ओलनेयाठे, शरषीर, भेंवान् तथा परम कान्तिमान् ये ।
अनेक शाघ्नोके तात्पर्थकों जाननेमें राजाने कुशलता प्राप्त
० डित शुभिमने: के नरद
यश्चो नमः झिवादेति जन््त्रों हदंक्गोचर:॥
( ० १० शर कको १ । १६ )
† वश्यत् समरो मनवः सोऽयं तश्र; स्वृत्त: ।
भिः धुदै4 संफो्नेपोदते शचिभिः ॥
नास्य ददा ज पी न संस्वस्रो न त्यम् ।
ने प्य नोषदेशरच सदा शुसिरवं मनुः॥
( ५५५ पृ = भवतौ २ । ३२०, २२ )