८८ ऋग्वेद संहिता भाग - २
५०२५, अन्तरैश्क्रैस्तनयाय वर्त्मा यातं नृवता रथेन ।
सनुत्येन त्यजसा मर्त्यस्य वनुष्यतामपि शीर्षा ववृक्तम् ॥१० ॥
हे देव अश्विनीकुमारों आप रथ पर चढ़ कर सन्तान को सुख देने के लिए घर आएँ । मानवो को कष्ट
पहुँचाने वाले दुष्टो का सिर, अपने उप्र क्रोध के दवारा तिरस्कार करते हुए कार डालें ॥६० ॥
५०२६. आ परमाभिरुत मध्यमाभिर्नियुद्धिर्यातमवमाभिरवाक् ।
दृढस्य चिद् गोमतो वि व्रजस्य दुरो वतं गृणते चित्रराती ॥११ ॥
हे देव अश्विनीकुमारों हम आपकी स्तुति करते है । आप स्तुति सुनकर हमारे पास आएँ। हमें गौओं से
भरा गोष्ठ एवं दिव्य धन प्रदान करे ॥११ ॥ ह
[ सूक्त - ६३ ]
[ऋषि - भरद्वाज बार्हस्पत्य । देवता -अश्विनीकुमार । छद - त्रिष्टप ११ एकपदा ब्रिष्ट॒प् ]
५०२७. क्व९त्या वल्गू पुरुहूताद्य दूतो न स्तोमो5विदन्नमस्वान्।
आ यो अर्वाङ् नासत्या ववर्त प्रेष्ठा हसथो अस्य मन्मन् ॥१॥
दोनों अश्विनीकुमार देव जहाँ भी हों, वहीं यह आहुति सहित हमारे आकर्षक स्तोत्र, उने दूत कौ तरह बुलाने
के लिए पहुँचें । बे दोनो स्तुत्यदेव हमारी ओर आएँ एवं स्तुति से आनन्दित हों ॥ १ ॥
५०२८. अरं मे गन्तं हवनायास्मै गृणाना यथा पिबाथो अन्धः ।
परि ह त्यदर्तिर्याथो रिषो न यत्परो नान्तरसतुतुर्यात् ॥२ ॥
हे अश्विनीकुमारदेवो ! आप हमारी स्तुति से प्रसन्न होकर हमारे घर आएँ एवं सोमपान करें । समीपस्थ एवं
दूरस्थ शत्रुओं से हमारे इस घर की रक्षा करें ॥२ ॥
५०२९. अकारि वामन्धसो वरीपन्नस्तारि बर्हि सुप्रायणतमम् ।
उत्तानहस्तो युवयुर्ववन्दा वां नक्षन्तो अद्रय आञ्जन् ॥३ ॥
हे अश्िदरय !सोमरस तैयार दै ।कुश के आसन बिछे हुए है । हम स्तोतागण आपको स्तुति करके बुलाते है ॥ ३ ॥
५०३०. ऊर्ध्वो वामग्निरध्वरेष्वस्थात् रातिरेति जुर्णिनी घृताची ।
प्र होता गूर्तमना उराणोऽयुक्त यो नासत्या हवीमन् ॥४ ॥
हि अश्चिनीकुमारदेवो ! यज्ञशाला पे अग्मि आपके निमित्त प्रदीष्त है । धृत से भरा पात्र आगे स्थित दै ।
अनेकों विशेष कार्य करने पे समर्थ, दानी होता मनोयोगपूर्वक आपके लिए आहति अर्पित करते हैं ॥४ ॥
५०३१. अधि श्रिये दुहिता सूर्यस्य रथं तस्थौ पुरुभुजा शतोतिम् ।
प्र मायाभिर्मायिना भूतमत्र नरा नृतू जनिपन्यज्ञियानाम् ॥५ ॥
हे आजानुबाहु अशिद्रय ! सूर्यपुत्री अर्थात् उषा आपके अनेक प्रकार से सुरक्षित रथ पर आरूढ़ होती है ।
आप देवों कौ प्रजाओं का नेतृत्व करें ॥५ ॥
५०३२. युवं श्रीभिर्दर्शताभिराभि: शुभे पुष्टिमूहथुः सूर्यायाः ।
श्र वां वयो वपुषेऽनु पप्तन्नक्षद्वाणी सुष्टुता धिष्ण्या वाम् ॥६ ॥