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सिद्धि अभिलषित हो, ऐसे अर्थका साधक | है और उन्हीं भेदोंमें कार्य-कारणभावसे अथवा
"हेतु" अलंकार कहलाता है। उस *हेतु' अलंकारके | | किसी नियामक स्वभावसे या अविनाभावके
भी 'कारक' एवं “ज्ञापक'-ये दो भेद हो जाते | दर्शनसे जो अविनाभावका नियम होता है, वह
हैं। इनमें कारक-हेतु कार्य-जन्मके पूर्वम ओर | ज्ञापक हेतुका भेद है। “नदीपूर' आदिका दर्शन
पश्चात् भी रहनेवाला है, जो “पूर्वशेष' कहा जाता | ज्ञापकका उदाहरण हैः ॥ २४--३२॥
इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमें 'अर्थालंक्रारका वर्णन” नामक
तीन सौ चौवालीसवां अध्याय पूरा हुआ॥ ३४४॥
नण
तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय
शब्दार्थोभयालंकार
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ट! 'शब्दार्थालंकार' | सर्वसम्मत एवं रुचिकर संगतिको * कान्ति' कहते
शब्द ओर अर्थ दोनोंको समानरूपसे अलंकृत | है । यदि ओज एवं माधुर्ययुक्त संदर्भमे - वस्तुके
करता है; जैसे एक ही अङ्गे धारण किया हुआ | अनुसार रीति एवं वृत्तिक अनुसार रसका प्रयोग
हार कामिनीके कण्ठ एवं कुचमण्डलकी कन्तिको | हो तो ओचित्यका प्रादुर्भाव होता है । अल्पसंख्यक
बढ़ा देता है । 'शब्दार्थालंकार' के छः भेद काव्यमें | शब्दोंसे अर्थ -बाहुल्यका संग्रह ' संक्षेप' तथा शब्द
उपलब्ध होते है प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य, | एवं वस्तुका अन्यूनाधिक्य “यावदर्थता' कहा
संक्षेप, यावदर्थता तथा अभिव्यक्ति। दूसरोके | जाता है। अर्थ-प्राकट्यको “ अभिव्यक्ति" कहते
मर्मस्थलको द्रवीभूत करनेवाले वाक्-कौशलको | हैं। उसके दो भेद हैं--' श्रुति” और ! आक्षेप" ।
"प्रशस्ति" कहते है । वह प्रशस्ति 'प्रेमोक्ति' एवं | शब्दके द्वारा अपने अर्थका उद्घाटन श्रुति" कहा
'स्तुति'के भेदसे दो प्रकारकौ मानी गयी है । | जाता है । श्रुतिके दो भेद हैँ -' नैमित्तिकी" और
प्रेमोक्ति और स्तुतिके पर्यायवाचक शब्द क्रमशः | * पारिभाषिकी ' । “संकेत” को परिभाषा कहते हैं।
'प्रिवोक्ति" एवं ' गुण-कीर्तन' है । वाच्य-वाचककी | परिभाषाके सम्बन्धसे ही वह पारिभाषिकी है ।
दण्डोने “' जहाँ प्रस्तुत वस्तुकौ विशेषता ( उत्कर्ष) दिखानेके लिये परस्परविरुद्ध संसर्गं (एकत्र अवस्थान) प्रदर्शित किया जाय, वह
"विरोध ' नामक अलंकार है ''--ऐसा लक्षण किया है । वामनने ' विरुद्धाभासत्वं विरोध: ।' (४।३। १२)--ऐसा कहा है। ' काव्यप्रकाश ' में
"विरुद्ध: सोऽविरुदेऽपि विरुद्धत्वेन यद्वच: ।'--ऐसा विरोधका लक्षण देखा जाता है। इन सबकी शब्दावलौमें किंचित् भेद होते हुए भी,
अभिप्राय सबका एक ही जान पढ़ता है। विरोधपूर्वक संगतिकरणकों कुछ लोग ' असंगति" अलंकार भी मानते हैं।
१. अग्निषुराणमें चर्चित ' हेतु' अलंकारकों भामहने चमत्कार-शून्य बताकर अस्वीकार कर दिया है। उन्होंने “सूक्ष्म! और *लेश'कों
भी अलंकार नहीं माना है। परेतु दण्डीने "वाचामुत्तमभूषणम् "~ यो कहकर इत्र तीत्रॉंको उत्तम अलंकारको कोटि रखा है। उन्होंने
'हेतु' का कोई स्वतन्त्र लक्षण नहीँ दिया है, परंतु अग्निषुराणोक्त कारक और ज्ञापक दोनों हेतुओंका उल्लेख किया है। अत: अग्निपुराणोक्त
लक्षण ही उन्हें अभिमत है। अग्नि धूमका कारक हतु है और धूम अग्निका ज्ञापक हेतु। इस प्रकार हेतुके दोनों भेद देखे जाते हैं। आचार्य
दण्डी "हेतु मे हो 'काव्यलिड्र', 'अनुमान' तथा कार्यकारणमूलक ' अर्थान्तरन्यास" का अन्तर्भाव मानते हैं। अतएव उन्होंने इन सबके
पृथक् लक्षण आदि नहीं लिखे हैं। भोजराजने "हु" का 'क्रियाया: कारणे हेतु: '--ऐसा लक्षण किया है।
२. जैसे नदीके जलप्रवाहके दर्शनसे उसके उद्गम-स्थानकी सत्ता सिद्ध होती है तथा धूमके दर्शनसे अग्निको सत्ता सूचित होती है।
इस तरहके वर्णनॉमें ज्ञापक हेतु समझना चाहिये।
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