६२ ऋगवेद सहिता भाग - २
४८१५. अध स्मा नो वृधे भवेद्ध नायमवा युधि ।
यदन्तरिक्षे पतयन्ति पर्णिनो दिद्यवस्तिग्ममूर्धानः ॥११ ॥
हे इन्द्रदेव ! आप हमारे सप्वर्धन करने वाले हैं । युद्ध में शत्रुओं द्वारा झोड़े गये पंख वाले पैने और तेजस्वी
वाण अन्तरिक्ष मार्ग से जब हमारे ऊपर बरसते हैं, तब उनसे आप हमारी रक्षा करते हैं ॥ १६ ॥
४८१६. यत्र शूरासस्तन्वो वितन्वते प्रिया शर्म पितृणाम् ।
अश स्मा यच्छ तन्वे तने च छर्दिरचित्तं यावय दवेषः ॥१२ ॥
जिस सपय अनीति प्रतिरोध के लिए शुरवौर अपना शरीर अर्पित करते है, तव पितरो को परमप्रिय सुख
(सन्तोष) होता है । ऐसे समयमे हे इन्द्रदेव ! आप हमारे शरीर और पुत्रों को रक्षा के लिए सुरक्षित निवास दें तथा
शत्रुओं को मार भगायें ॥१२ ॥
४८१७. यदिन्द्र सर्गे अर्वतश्चोदयासे महाधने ।
असमने अध्वनि वृजिने पथि श्येनां इव श्रवस्यतः ॥१३ ॥
हे इनद्रदेव ! जब युद्ध हो, तब आप दमे घोड़ों को तीवगामी रवेन पक्षी की तरह, विषम मार्गों से भी होते
हुए रणक्षेत्र में ले जाने को प्रेरणा प्रदान करें ॥१३ ॥
४८१८. सिन्धूँरिव प्रवण आशुया यतो यदि क्लोशमनु ष्वणि।
आ ये वयो न वर्वृतत्यामिषि गृभीता बाहोर्गवि ॥९१४॥
युद्ध के समय घोड़े भय से हिनहिनाते हैं, किन्तु वीरो के घोड़े ऊपर से नीचे की ओर तीव गति से बहने बाली
नदियों की तरह एवं बाज पक्षी के झपड़े की तरह अति वेगपूर्वक दौड़ते हैं और विजय प्राप्त करते हैं ॥६४ ॥
[ सूक्त - ४७ |]
[ऋषि - गर्ग भारद्वाज । देवता - इन्र. १ - ५ सोम, २० देवभूमि, बृहस्पति - इद्र, २२ - २५ मार्ज्जव प्रस्तोक
(दान स्तुति) २६ - २८ रथ, २९ - ३० दुंदुभि, ३१ दुंदुधि और इन्र । छन्द - त्रिष्टप् १९ वृहती, २३ अनुष्टुप्,
२४ गायत्री, २५ द्विपदा ब्रष्टुप् , २७ ~ जगती ॥]
४८१९. स्वादुष्किलायं मधुमां उतायं तीव्रः किलायं रसवाँ उतायम् ।
-उतो न्वस्य पपिवांसमिन्द्रं न कश्चन सहत आहवेषु ॥१ ॥
सोमरस तीक्ष्ण, मधुर एवं रुचिकर स्वाद वाला होता है । इख सोम के पीने वाले इन्द्रदेव को युद्ध में कोई
जौत नहीं सकता ॥६ ॥
४८२०. अयं स्वादुरिह मदिष्ठ आस यस्येनरो वृत्रहत्ये ममाद ।
पुरूणि यश्यौत्ना शम्बरस्य वि नवतिं नव च देह्यो३े हन् २ ॥
यह सोम र्षित करने वाला है, अत; इसको पीकर इन्द्रदेव ने 'वृत्ासुर' का नाश किया तथा शम्बर के अनेक
किलों को ध्वस्त किया ॥२ ॥
४८२१. अयं पे पीत उदियर्ति वाचमयं मनीषामुशतीमजीग: ।
अयं षटुर्वीरमिमीत धीरो न याभ्यो भुवनं कच्चनारे ॥३ ॥