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उत्तरभाग

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लोग वहाँ विधिपूर्वक पितरोंको पिण्डदान देते हैं, | संहारकारी कालके भी संहारक हैं उन भगवान्‌

उनके पितर अक्षय तृप्ति लाभ करते हैं।

देवि! इस प्रकार मैंने समुद्रमें स्नान, दान एवं

पिण्डदान करनेका फल बतलाया। यह धर्म,

अर्थ एवं मोक्षरूप फल देनेवाला, आयु, कीर्ति

तथा यशको बढ़ानेबाला, मनुष्योंकों भोग और

मोक्ष देनेवाला तथा उनके बुरे स्वप्रोंका नाश

करनेवाला धन्य साधन है। यह सब पापोंको दूर

करनेवाला, पवित्र तथा इच्छानुसार सब फलोंको

देनेवाला है। इस पृथ्वीपर जितने तीर्थ, नदियाँ

और सरोवर हैं, वे सब समुद्रमें प्रवेश करते हैं,

इसलिये वह सबसे श्रेष्ठ है। सरिताओंका स्वामी

समुद्र सब तीर्थोका राजा है, अत: वह सभी

श्रीकृष्णको रमै नमस्कार करता हूँ। देवि! ब्रह्म

श्रीकृष्णस्वरूप है । सब अवतार उसीके हैं । स्वयं

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही अवतारी हैं। वे स्वयं ही सगुण

भी हैं ओर निर्गुण भी। वस्तुतः वे ही श्रीराम हैं और

वे ही श्रीकृष्ण । सम्पूर्ण लोक प्राकृत गुणोंसे उत्पन्न

तीर्थसे श्रेष्ठ है। जैसे सूर्योदय होनेपर अन्थकारका | |+ ^

नाश हो जाता है उसी प्रकार तीर्थराज समुद्रमें

स्नान करनेपर सब पापोंका क्षय हो जाता है।

जहाँ निन्यानवे करोड़ तीर्थ रहते हैं उस तीर्थराजके

गुणोंका वर्णन कौन कर सकता है। अतः वहाँ

स्नान, दान, होम, जप तथा देवपूजन आदि जो

कुछ सत्कर्म किया जाता है, वह अक्षय बताया

गया है।

मोहिनीने पूछा--गुरूदेव ! पुराणोंमें राधामाधवका

वर्णन रहस्यरूप है। सुब्रत! आप सब कुछ

यथार्थरूपसे जानते है; अतः उसे बताइये।

वसिष्ठजी कहते हैं--राजन्‌! मोहिनीका यह

वचन सुनकर महात्मा वसु जो भगवान्‌ गोविन्दके

अत्यन्त भक्त थे, उनके चिन्तनमें निमग्र हो गये।

उनके सम्पूर्ण अङ्गौ रोमाञ्च हो आया। इृदयमें

हर्षकी बाढ़-सी आ गयी; अतः वे द्विजश्रेष्ठ मुग्ध

होकर मोहिनीसे प्रसन्नतापूर्वक बोले।

पुरोहित बसुने कहा--देवि ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका

चरित्र परम गोपनीय तथा रहस्योंमें भी अत्यन्त

रहस्यभूत है। मैं बताता हूँ, सुनो। जो प्रकृति और

पुरुषके भी नियन्ता, विधाताके भी विधाता और

हुए है । स्वयं गोलोकधाम निर्गुण है । भद्रे! गोलोकमे

जो 'गो' शब्द है, उसका अर्थं है तेज अथवा

किरण। वेदवेत्ता पुरुषोंने ऐसा ही निरूपण किया

है। देवि ! वह तेजोभय ब्रह्म सदा निर्गुण है। गुणोंका

उत्पादक भी वही माना गया है। प्रकृति उस

परमात्माकी शक्ति मानी गयी है। प्रधान प्रकृतिको

कार्यकारणरूप बताया गया है। पुरुषको साक्षी,

सनातन एवं निर्गुण कहते हैं। पुरुषने प्रकृतिमें

तेजका आधान किया। इससे सत्त्व आदि गुण

उत्पन्न हुए। उन गुणोंसे महत्तत्त्वका प्रादुर्भाव हुआ।

पुरुषके संकल्पसे वह महत्तत्त्व अहंकाररूपमें प्रकट

हुआ। भद्दे! वह अहंकार द्रव्य, ज्ञान और क्रियारूपसे

तथा बैकारिक, तैजस और तामसरूपसे तीन

प्रकारका है। वैकारिक अहंकारसे मन तथा दस

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