* अध्याय ३३७ *
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अपने बच्चोंको दाढ़ोंस पकड़कर एक स्थानसे
दूसरे स्थानपर ले जाती है, किंतु उन्हें पीड़ा नहीं
देती, वर्णॉंका ठीक इसी तरह प्रयोग करे, जिससे
वे वर्ण न तो अव्यक्त (अस्पष्ट) हों और न
पीड़ित ही हों। व्णेकि सम्यक् प्रयोगसे मानव
ब्रह्मलोकमें पूजित होता है। 'स्वर' तीन प्रकारके
माने गये है-- उदात्त, अनुदात्त ओर स्वरित । इनके
उच्चारणकालके भी तीन नियम हैं-हस्व, दीर्घं
तथा प्लुत । अकार एवं हकार कण्ठस्थानीय है ।
इकार्, चवर्ग, यकार एवं शकार--ये तालुस्थानसे
उच्चरित होते हैँ । उकार और पवर्ग-ये दोनों
ओषठस्थानसे उच्चरित होनेवाले है । ऋकार, टवर्ग,
रेफ एवं षकार--ये मूर्धन्य तथा लृकार, तवर्ग,
लकार और सकार--ये दन्तस्थानीय होते है । | "
कवर्गका स्थान जिह्वामूल है । वकारको विद्वज्जन
दन्त और ओष्ठसे उच्चरित होनेवाला बताते है ।
एकार और एकार कण्ठ-तालव्य तथा ओकार
एवं ओकार कण्ठोष्ठज माने गये ई । एकार, एेकार
तथा ओकार और ओकारमें कण्ठस्थानीय वर्ण
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अकारकी आधी मात्राया एक मात्रा होती है।
" अयोगवाह " आश्रयस्थानके भागी होते है, ऐसा
जानना चाहिये। अच् (अ, ३, उ, ऋ, लू, ए, ओ,
ऐ, औ)--ये स्वर स्पर्शाभावरूप " विवृत ' प्रयलवाले
हैं। यण् (य, व, र, ल)' 'ईषत्स्पृष्ट' एवं शल्
(श, ष, स, ह) " अर्धस्ृष्ट' अर्थात् ईषद्विवृत'
प्रयलवाले हैँ । शेष "हल्" अर्थात् क से लेकर म
तकके अक्षर "स्पृष्ट प्रवतवाले" माने गये हैँ ।
इनमें बाह्य प्रयत्नके कारण वर्णभेद जानना चाहिये
*जम्' प्रत्याहारे स्थित वर्ण (ज, म, ङण, न)
अनुनासिक होते हैँ । हकार और रेफ अनुनासिकं
नहीं होते । "हकार, झकार तथा षकार 'के ' संवार ',
घोष" और “नाद' प्रयत्न हैं। "यण्" और
जश्'-इनके 'ईषन्नाद' अर्थात् 'अल्पप्राण' प्रयत्न
हैं। ख, फ आदिका "विवार" “अघोष' और
'श्वास' प्रयल हैं। चर् (च, ट, त, क, प, श,
ष, स)-का 'ईषच्छवास' प्रयत्न जानना चाहिये।
यह व्याकरणशास्त्र वाणीका धाम कहा जाता
है॥ १--२२॥
इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमें 'शिक्षानिरूपण ” नामक
तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३३६ #
(न ^~
तीन सौ सैंतीसवाँ अध्याय
काव्य आदिके लक्षण
अग्निदेव कहते है -- वसिष्ठ | अब मैं 'काव्य'
होती है। वेदादि शास्त्रोंमें शब्दकी प्रधानता है
और * नाटक" आदिक स्वरूप तथा अलंकारो का | और इतिहास-पुराणोंमें अर्थकौ । इन दोनोंमें
वर्णन करता हूं । ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य--
"अभिधा-शक्ति' ( वाच्यार्थ) -की ही मुख्यता होती
यही सम्पूर्ण वाङ्मय माना गया हैः । शास्त्र, इतिहास | है; अतः ' काव्य ' इन दोनोंसे भिन्न है । [क्योंकि
तथा काव्य -इन तीनोंकी समाप्ति इसी वाङ्मयमें | उसमें व्यङ्गघ अर्थको प्रधानता दी जाती है*।]
६. अनुस्थार, विसर्ग
उपध्यानीय और यम -यै ' अयोगवाह ' कहलाते ह । ये जिस स्वरपर आश्रिर होते हैं, उसीका
जिह्वामूलीय,
स्थान उनका स्यान होता है । जैसे --' रामः" का चिप कण्ठस्थानीय है और ' हरिः ' का विसर्गं तालुस्थानोय ।
२. 'सरस्थतो-कष्ठाभाण ' के रचधिता महाराजाधिराज भोजदेवने अपने ग्न्यके मङ्गलाचरणे 'ध्वनिर्वर्णाः पदं वाक्यम् ' (१। १)
अग्रिपुराणकी इस आनुपूर्वीको अधिकलरूपसे उद्धृत किया है ।
३. शब्दप्रधान चेदादिकीौ आज्ञाकों भामह आदि आचार्योने ' प्रभुसरम्मित' और अर्थप्रधात इतिहास-पुराणोंकौ आज्ञाकों 'सुहत्सम्मित
जाम दिया है। इसी तरह शब्द और अर्थकों गौण करके जहाँ व्यङ्कपार्थको प्रधानता दी गयी है, उस काण्यके उपदेशो 'कान्तासम्मित
कहा है। यषा -