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मै० ६ सु० ५ ७

हे अग्निदेव ! हम आपकी कृपा से अहिंसापूर्वक उत्तम मार्गों से सुख एव धन-सम्पदा प्राप्त करे । हमें पाप

कर्मों से बचाएँ। आप विज्ञजनों को जो सुख देते हैं, वही सुख हम स्तोताओं को प्रदान करें हम सौ वर्षों तक

सुसन्तति सहित आनन्दपूर्वक रहें ॥८ ॥

[ सूक्त - ५ |

[ऋषि - भरद्वाज वार्हस्पत्य । देवता - अग्नि । छन्द - त्रिष्‌ |]

४४०९. हुवे व: सूनुं सहसो युवानमद्रोघवाचं मतिभिर्यविष्ठम्‌ ।

य इन्वति द्रविणानि प्रचेता विश्ववाराणि पुरुवारो अध्रुक्‌ ॥१ ॥

हे अग्निदेव ! आप बल के पुत्र, द्रोह शून्य, चिरयुवा, मेधावी एवं स्तुति करने योग्य ह । ऐसे गण-सम्पन्न

अग्निदेव का स्तो दवारा हम आवाहम करते है । वे अग्निदेव स्तुति करने वाले मनु पुत्रों को इच्छित धन ऑर

यश प्रदान करते है ॥६ ॥

४४१०. त्वे वसूनि पुर्वणीक होतर्दोषा वस्तोरेरिरे यज्ञियासः ।

क्षामेव विश्वा भुवनानि यस्मन्त्सं सौभगानि दधिरे पावके ॥२ ॥

हे अग्निदेव ! आप वहत सी ज्वाला ओं वाले ओर देवताओं को आहूत के मे समर्थ हैं । यज्ञकर्ता यजमान

रात ओर दिन आपके लिए हौ हविष्यात्न प्रदान करते रहते है । जिस तरह पृथ्वी पर सभी प्राणौ स्थित हैं, उसी तरह

अग्निरेव समस्त धन-ऐश्वर्य धारण करते हैं ॥२ ॥

४४११. त्वं विक्षु प्रदिवः सीद्‌ आसु क्रत्वा रथीरभवो वार्याणाम्‌ ।

अत इनोषि विधते चिकित्वो व्यानुषग्जातवेदो वसूनि ॥३ ॥

हे अग्निदेव ! आप अपनी सामर्थ्य से श्रेष्ठ इच्छाओं की पूर्ति करते हैं आप उत्तम सम्पत्तिवानों में प्रमुख

हैं । हे ज्ञान स्वरूप देव ! आप अपने याजको को सदैव ऐश्वर्य प्रदाव करें ॥३ ॥

४४१२. यो नः सनुत्यो अभिदासदग्ने यो अन्तरो मित्रमहो वनुष्यात्‌ ।

तमजरेभिर्वृषभिस्तव स्वैस्तपा तपिष्ठ तपसा तपस्वान्‌ ॥४ ॥

हे अग्निदेव ! आप उन दोनों प्रकार के शत्रुओं का संहार करें, जो छिपकर अथवा अन्दर प्रविष्ट होकर

हमारा नाश करना चाहते हैं । आपका तेज चिरयुवा एवं पर्जन्य का कारण रूप है ॥४ ॥

४४१३. यस्ते यज्ञेन समिधा य उक्थैरर्केभिः सूनो सहसो ददाशत्‌ ।

स मर्त्येष्वमृत प्रचेता राया द्युप्नेन श्रवसा वि भाति ॥५ ॥

है अग्निदेव ! जो याजक हव्य पदार्थौ द्वारा यज्ञ करके आपकी सेवा करता हैं एवं स्तोत्र से स्तवन करता

है, वह यजमान श्रेष्ठ ज्ञान, अन्न एवं धन प्राप्त कर मनु पुत्र मे सुशोभित होता है ॥५ ॥

४४१४. स तत्कृथीषितस्तुयमगे स्पृधो बाधस्व सहसा सहस्वान्‌ ।

यच्छस्यसे द्युभिरक्तो वचोभिस्तज्जुषस्व जरितुर्घोषि मन्म ॥६ ॥

हे अग्निदेव ! आप प्रकाशमान तेज से युक्त एवं शक्तिशालो दै । अतएव अपनी उस शक्ति के द्वारा हमारे

शत्रुओं का नाश केरे । श्रेष्ठ वाणियों द्वारा कौ जा रही स्तुति को स्वीकार करें । आप कृपा करके, उस कार्य को

पूर्ण करें, जिसके निमित्त आप नियुक्त किये गये हैं ॥६ ॥

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