६८६ * संक्षिम ब्रह्मवैयर्तपुराण «
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मनुष्य विषमिश्रित भोजनकों खा जाता है और | परित्याग करके नहीं जा सकते।
दुष्ट मुखपर छलछलाते हुए दूधवाले दूषित इसके बाद श्रीवृन्दाने पतिब्रत-धर्मकी महिमा
विषकुम्भको ग्रहण कर लेता है; उसी तरह लम्पट | और दुराचारकौ निन्दा करके कोपप्रकाशपूर्वक
पुरुष परायी स्त्रियोंक मनोहर मुखकमलको, जो | शाप दे दिया--'दुराचार ! तुम्हारा नाश हो जाय।
विनाशका कारण है, देखकर मोहवश श्रान्त हो | पापिष्ठ! तुम नष्ट हो जाओ।' इतना कहकर जब
जाता है। स्त्रियोंका सुन्दर मुख, दोनों नितम्ब
तथा स्तन काम-वासनाके आधार, नाशके कारण
और अधर्मके स्थान हैं। जो लार और मूत्रसे
संयुक्त है, जिसमेंसे दुर्गन्ध निकलती है, जो पाप
तथा यमदण्डका कारण है, स्त्रियोंका वह
मूत्रस्थान (योनि) नरककुण्डके सदृश है । ब्राह्मण !
एकान्ते देखकर जो तुम मेरी धर्षणा करना चाहते
हो तो यहीं समस्त देवता, लोकपाल, कर्मोंके
शासक तथा साक्षी जाज्वल्यमान धर्म, स्वयं
श्रीहरिद्वारा नियुक्त दण्डकर्ता यमराज, स्वयं
धर्मात्मा श्रीकृष्ण, ज्ञानरूपी महे श्वर, दुर्गा, बुद्धि,
मन, ब्रह्मा, इन्द्रियाँ तथा देवगण उपस्थित हैं।
ये सम्पूर्ण प्राणियोंमें उनके कर्मोके साक्षीरूपसे
वर्तमान रहते हैं; अतः अज्ञानी ब्राह्मण! कौन-
सा स्थान गुप्त है और कौन-सा रहस्यमय ? विप्र!
तुम्टारा कल्याण हो। मुझे क्षमा कर दो और
जाओ। मैं तुम्हें भस्म कर डालनेमें समर्थ हूँ;
परंतु ब्राह्मण अवध्य होते हैं। अतः वत्स! तुम |
सुखपूर्वक यहाँसे चले जाओ। द्विज! तपस्या |
पुनः शाप देनेको उद्यत हुई तब स्वयं सूर्यने उसे
यन्न करके रोक दिया। इसी बीच वहाँ ब्रह्मा,
शिव, सूर्य और इन्द्र आदि देवता आ पहुँचे।
सबने उससे क्षमा माँगी और “धर्म तुम्हारी
परीक्षाके लिये आवा था। उसमें तनिक भी
पापबुद्धि नहीं थी। धर्मके नाशसे जगत्के
सनातनधर्म-रूप जीवनका नाश हो जायगा' यह
कहकर धर्मकों जीवनदान देनेकी प्रार्थना की।
तब बृन्दाने कहा--देव! मैं नहीं जानती
थी कि ये ब्राह्मणवेषधारी धर्म हैं और मेरी परीक्षा
करनेके लिये आये हैं। इसी कारण मैंने क्रोधवश
इनका नाश किया है। अब आप लोगोंकी कृपासे
मैं अवश्य धर्मको जीवन-दान दूँगी। व्रजेश्वर!
यों कहकर वह वृन्दा पुनः बोली--'यदि मेरी
तपस्या सत्य हो तथा मेरा विष्णुपूजन सत्य हो
तो उस पुण्यके प्रभावसे ये विप्रवर यहाँ शीघ्र
ही दुःखरहित हो जाये। यदि मुझमें सत्य वर्तमान
हो और मेरा ब्रत सत्य तथा तप शुद्ध हो तो
उस पुण्य तथा सत्यके प्रभावसे ये ब्राह्मण
करते हुए मुझे एक सौ आठ युग बीत गये। कष्टरहित हो जायं । यदि नित्यमूर्ति सर्वात्मा
अब न तो मेरे पिताका गोत्र ही रह गया है नारायण तथा ज्ञानात्मक शिव सत्य हैं तो ये
और न मेरे माता-पिता ही हैं। सबके अन्तरात्मास्वरूप द्विजवर संतापरहित हो जाय । यदि ब्रह्म सत्य
भगवान् श्रीकृष्ण मेरी रक्षा करते हैं। श्रीकृष्णद्रारा हो, सभौ देवता और परमा प्रकृति सत्य हों,
स्थापित धर्म नित्य मेरी रक्षामें तत्पर है। सूर्य, यज्ञ सत्य हो और तप सत्य हो तो इन ब्राह्मणका
चन्द्रमा, पवन, अग्नि, ब्रह्मा, शम्भु. भगवती | कष्ट दूर हो जाय।'--इतना कहकर सती वृन्दाने
दुर्गा-ये सभी सदा मेरी देख-भाल करते हैं। | धर्मको अपनी गोदमें कर लिया और उन
जिन्होंने हंसोंको श्वेत, शुकोंको हरा और मयूरोंकों कलारूपको देखकर वह कृपापरवश हौ रुदन
रंग-बिरंगा बनाया है; वे ही मेरी रक्षा करेंगे। करने लगी। इसी बीच धर्मकी भार्या मूर्ति, जो
सभी देवता अनाथो, बालकों तथा वृद्धोंकी सर्वदा | शोकसे व्याकुल थी, सिरके बल विष्णुके चरणपर
रक्षा करते है, अतः नारी समझकर धर्म मेरा भिर पडी और यों बोली।