करनी चाहिये तथा 'आकार' आदि दीर्घ अक्षरोंके | करती हैं तथा
बीजको आदिमे रखकर ' ब्राह्मी" आदि मातृकाओंकी
अर्चना करनी चाहिये'। अग्नि आदि चार कोणोंमें
चार बदुकोंका पूजन कर्तव्य है। समयपुत्र वटुक,
योगिनीपुत्र बुक, सिद्धपुत्र वटक तथा चौथा कुलपुत्र
वदुक--ये चार वटुक हैं। इनके अनन्तर आठ
क्षेत्रपाल पूजनीय हैं। इनमें हेतुक ' क्षेत्रपाल प्रथम
हैं और 'त्रिपुरन्त ' द्वितीय। तीसरे ' अग्निवेताल' चौथे
*अग्रिजिह्न', पाँचवें 'कराल' तथा छठे काललोचन '
हैं। सातवें 'एकपाद' तथा आठवें 'भीमाक्ष ' कहे
गये हैं। (ये सभी क्षेत्रपाल यक्ष हैं।) इन सबका
पूजन करके त्रिपुरादेवीके प्रेतरूप पद्मासनकी पूजा
करे। यथा--ऐं क्षैं परेतपद्यासनाय नम: । ॐ ऐं हीं
दायें हाथमें वरदमुद्रा एवं माला
(जपमालिका) | देवी बाणसमूहसे भरा तरकस
और धनुष भी लिये रहती हैं।' मूलमन्त्रसे
हृदयादि न्यास करे'॥ ७--१२॥
(अब प्रयोगविधि बतायी जाती है-)
गोसमूहके मध्यमें स्थित हों, श्मशान आदिके
वस्त्रपर चिताके कोयलेसे अष्टदलकमलका चक्र
लिखे या लिखावे। उसमें द्रेषपात्रका नाम लिखकर
लपेट दे। फिर चिताकी राखको सानकर एक
मूर्ति बनावे। उसमें द्वेषपात्रकी स्थितिका चिन्तन
करके उक्त यन्त्रको नीले रंगके डोरेसे लपेटकर
मूर्तिके पेटमें घुसेड़ दे। ऐसा करनेसे उस व्यक्तिका
उच्चाटन हो जाता है॥ १३-१४॥
हसौः त्रिपुरायै प्रेतपद्यासनसमास्थितायै नमः ।'-- ज्वालामालिनी -मन्त्र
इस मन्रसे प्रेतपद्यासनपर विराजमान त्रिपुराभैरवीकी | "ॐ नमो भगवति ज्वालामालिनि
पूजाः करे । उनका ध्यान इस प्रकार है--' त्रिपुरादेबी ' | स्वाहा।' इस मन््रका जप करते हुए युद्धमें जानेवाले
बायें हाथमे अभय एवं पुस्तक (विद्या) धारण | पुरुषको प्रत्यक्ष विजय प्राप्त होती है ॥ १५-१६॥
१. *शारदाठिलक ' के नवम पटलमें कहा गया है कि आठ मातृकाओंका कमलके आठ दलोंमें पूजन करे । मातृकाएँ अपने-अपने
भैरवके अडूमें विराजती हैं ।' दोषांद्या मातरः प्रोक्ता हस्वाचच भैरवाः स्मृता:। - अर्थात् शीर्षस्बरोको बीजके रूपमें नायके आदिमें लगाकर
मातृकाओंकी पूजा करनी चाहिये और हस्व अद्रौको आदिमे बीजके रूष जोड़कर भैरवोंका पूजन होना चाहिये।' यहाँ हस्य और दीर्घ
अक्षर पारिभाषिक लिये गये हैं। इनका परिचय देते हुए राघयभट्टने ' शा० ति० 'की 'पदार्धादेश' नामक टीकामें लिखा है कि "अ इ उ ऋ
लू एओ अ" ये आठ अक्षर 'हस्व'के नामसे उपयोगमें लाये जाते हैं और 'आ हई ऊ ऋ लृ ऐ ओ अ: '--ये आठ अक्षर दीर्घ-स्वरके
ऋमसे। इनके प्रयोगवाक्य ' श्रीविद्यार्णवतन्त्र ' में इस प्रकार दिये गये हैं--' आं ब्राह्मण नम: । ॐ असिताङ्गभैरवाय नमः । ई माहेश्व नम: ।
ई रुरुभैरवाय नम: । ऊं कौमार्य नम: । उ॑ च्रण्डभैरयाय नमः! ऋ चैषटणव्यै नम: । च क्रोधभैरवाय नम: । सूं वाराहौ नमः, लं उन्मतभेरवाय
नमः । ए इन्द्राण्यै नमः॥ एं कपालिभैरवाय नमः । ओँ चामुण्डायै ममः । ओं भौयनधैरवाव वमः । अ: महालदस्यै नम: । अं संहारपैरवाय
नम: ।' इस प्रकार भैरयके अङ्के स्थित मादृका्ओकि प्रदक्षिणक्रमसे पूजन करना चाहिये।'
२. * श्रौविद्यार्णवतन्त्र' के २५ वें श्वासमें प्रिपुरादेवोके पूजनका क्रम यों ताया गया है--प्रात:कृत्य और प्राणायाम करके पीठन्यास
करे । अन्यत्र बताये हुए क्रमसे आधारशक्ति आदिकी अर्चनाके पश्चात् इृदयकमलके पूर्वादि केसरॉमें इच्छा, ज्ञाना, क्रिया, कामिनौ,
कामदायिनी, रति, रतिप्रिया और तन्दाका पूजन करे तथा मध्य भागमें मनौन््मनीका। उसके ऊपर "ए परायै अपरायै परापरायै हसौः
सदाशिवमहाप्रेतफस्तासनाय वमः ।'--इस प्रकार न्यास करके मस्तकषर दक्षिणामूर्ति ऋषिका, मुखे पङ्क खन्दका, हदय प्रिपुरभैरवोी
देवताका, गुह्ये काभव बौजका, चरणोंमें तातोंय शक्तिका तथा सर्वाङ्गये कामराज कौलकका न्यास करे। तत्पश्चात् काभवबीज (हें
नमः) -का नाभिसे चरणपर्यन्त, कामबोज (ह सकल रौ नमः) -का हदते नाभिपर्वन्े तथा तातीय बोज (हसः) -का सिरस हृदयपर्वन्त
न्यास करे । इसी तरह आद्यबौजका दाहिने हाथमें, द्वितीय जका यावे हाथमें तथा तृतीय बौजका दोनों हाथोंमें न्यास करे । इसी क्रमते
मस्तक, मूल्यधार और हृदयमें उक्त तीनों बौर्जोका न्स करना चाहिये । दाये कान्, यायें कान और चिबुकमें भौ उक्त तीनो बी्जोका
क मशः न्यास करे । फिर आगे खताये जानेवाले तीव- तीन अज्जॉमें क्रमश: तीनों बीजॉका न्यास करे । यह ' कवयोनिन्यास ' है। यधा ~ दाव
गाल, कावा गाल और मुख । दायां नेत्र, बां नेत्र और कासिका। दायां कधा, बाया कंधा और पेट । दायी कोहनी, जायीं कोहनी और
कश्चि । दाया घुटना, बाया घुटवा और लिङ्ग । दावो पैर, बाया पैर तथा गुह्य भाग । दायां षा, बाया पाश्वं और हदय । दायो स्तन, बाया
तन और कण्ठ।
३. मूलमन्त्र बीजत्रयात्मक है । यधा हस्तै नम: । हस कल री नमः । हसौ: नमः।