८ ऋग्वेद संहिता भाग - २
४४१५. अश्याम तं काममग्ने तवोती अश्याम रयिं रयिवः सुवीरम्।
अश्याम वाजमभि वाजयन्तोऽश्याप द्युप्नपंजराजरं ते ॥७ ॥
है अग्निदेव ! आपकी कृपा से हमारी कामनाएँ पूर्ण हो । ऐश्व्यों के स्वामी हे अग्निदेव ! हम सुसंतति से
युक्त एवं ऐश्वर्यवान् हो । हे अन्नदाता ! हमें अन्न प्रदान करें हे अग्निदेव ! आप अजर है, अपने तेजस्वी अमर
यश से हमें यशस्वी बनायें ॥७ ॥
[ सूक्त - ६]
[ऋषि - भरद्वाज बार्हस्पत्य । देवता - अग्नि । छद - त्रिष्टप् ।]
४४१६. प्र नव्यसा सहसः सूनुमच्छा यज्ञेन गातुमव इच्छमानः ।
वृश्चद्रनं कृष्णयापं रुशन्तं वीती होतारं दिव्यं जिगाति ॥१॥
सुरक्षा की कामना करने वाले याजक, यज्ञीय जीवनयापन करते हुए, स्तुति के योग्य एवं बल-पुत्र अग्निदेव
के निकट जाते है । वे अग्निदेव, कृष्ण (धूम्र) मार्ग वाले, तेजस्वी, वनों को भस्म करने में समर्थ तथा दिव्य होता है ॥१ ॥
४४१७. स श्चितानस्तन्यत् रोचनस्था अजरेभिर्नानदद्धरयविष्ठः ।
यः पावक : पुरुतमः पुरूणि पृथुन्यग्निरनुयाति भर्वन् ॥२॥
वे अग्निदेव, श्वेत (उज्ज्वल) वर्ण वाले, अनेक किरणों वाले तेजस्वी, प्रकाश फैलाने वाले तथा, चिरयुवा है ।
बहुत शब्द करते हुए वे पवित्र अग्निदेव बड़ी समिधाओं का भक्षण करते हुए गमन करते हैं ॥२ ॥
४४१८. वि ते विष्वग्वातजूतासो अग्ने भामासः शुचे शुचयश्चरन्ति ।
तुविप्नक्षासो दिव्या नवग्वा वना वनन्ति धृषता रुजन्तः ॥३॥
हे अग्निदेव ! आपकी ज्वालाएँ वायु से ओर अधिक प्रखर होकर काष्ठ को जलाती है । वे वनो को भी
भस्म कले में समर्थ होती है । प्रज्वलित अग्नि शिखाएँ गति करती हुईं सर्वत्र व्याप्त होती है ॥३ ॥
४४१९. ये ते शुक्रासः शुचयः शाचिष्मः क्षां वपन्ति विषितासो अश्वाः ।
अश भ्रमस्त उर्विया वि धाति यातयमानो अधि सानु पृश्नेः ॥४ ॥
हे अग्निदेव ! आपकी ज्वालाएँ छोड़े गये अश्रों जैसी सर्वत्र गति करती हुईं पृथ्वी पर क्रीड़ा करती है । वे
वनों को भी जलाने में समर्थ हैं ॥४ ॥
४४२०. अथ जिद्डा पापतीति प्र वृष्णो गोषुयुधो नाशनिः सृजाना ।
शूरस्येव प्रसितिः क्षातिर्ेर्वत भमो दयते वनानि ॥५ ॥ '
बलशाली अभ्निदेव की लपलपाती अग्नि शिखाएँ ऐसे प्रतीत होती हैं , जैसे कि इद्धदेव अपने बज़ को
बार-बार उठा रहे हों । शूरवीर के द्वारा फेंके गये पाश के समान निर्वाध गति करती हुई अग्नि की ज्वालाएँ वनों
को जला डालती हैं ॥५ ॥
४४२१. आ भानुना पार्थिवानि ज्रयांसि महस्तोदस्य धृषता ततन्थ ।
स बाधस्वाप भया सहोभिः स्पृधो वनुष्यन्वनुषो नि जूर्व ॥६ ॥
है अग्निदेव ! आप अपने प्रकाश की प्रेरक किरणों द्वारा सपर्ण पृथ्वी को आच्छादित करें ओर हमसे (अर्थात्
यज्ञकर्त्ता देव वृत्तिवालों से) देष करने वाले शत्रुओं को अपनी शक्ति से नष्ट करें ॥६ ॥